Thursday, November 26, 2015

सच्ची शराबबंदी लागू कर दें, तो हम भी करेंगे नीतीश की जय-जय

(26 नवंबर 2015)

अगर नीतीश कुमार सचमुच बिहार में प्रभावशाली तरीके से शराबबंदी लागू कर पाए, तो उनसे मेरी आधी शिकायतें दूर हो जाएंगी। शराब बहुत सारी बुराइयों की जड़ है। इसकी वजह से महिलाओं का जीवन नरक बन जाता है, बच्चों पर बुरा असर पड़ता है, लोग बड़ी संख्या में गंभीर बीमारियों के शिकार होते हैं, बड़े पैमाने पर दुर्घटनाएं होती हैं, कानून-व्यवस्था के हालात बिगड़ते हैं, भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है और देश की कार्यशक्ति और अर्थव्यवस्था पर प्रत्यक्ष और परोक्ष चोटें पड़ती हैं।

कारगर शराबबंदी के लिए नीतीश कुमार को आग के ढेर से गुज़रना होगा। देश के अन्य हिस्सों की ही तरह बिहार में भी शराब माफिया बहुत पावरफुल है। ख़ुद नीतीश जी की टोली में कई लोग ऐसे होंगे, जो शराब के धंधे से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जुड़े होंगे। नीतीश जी को उनपर लगाम कसनी होगी। शराबबंदी का असली मकसद तभी हासिल होगा, जब गली-गली अवैध शराब की भट्ठियां न लग जाएं। बिहार में ज़हरीली शराब से हर साल बड़ी संख्या में मौतें होती हैं। बिहार पुलिस के एक आला अधिकारी ने कहा था कि बिहार में जितनी शराब वैध तरीके से बिकती है, उतनी ही अवैध तरीके से भी बिकती है।

इतना ही नहीं, इस वक्त शराब से बिहार को करीब साढे तीन हज़ार करोड़ रुपये के सालाना राजस्व की प्राप्ति होती है। नीतीश जी को इसका लालच छोड़ना होगा। अपने पिछले कार्यकाल में शराब से प्राप्त पैसे पर वह इस हद तक निर्भर हो गए थे कि यहां तक कह दिया था कि लोग शराब पिएंगे, तभी तो लड़कियों की साइकिलों के लिए पैसे आएंगे। इस बयान के चलते उनकी काफी आलोचना हुई थी और बिहार की कई होनहार बेटियां सरकारी साइकिलें लौटाने पहुंच गई थीं।

लेकिन अब चूंकि ऐसा लग रहा है कि सरस्वती ने नीतीश जी को सद्बुद्धि प्रदान कर दी है, इसलिए पुरानी बातों से आगे बढ़ते हुए हमें उनका समर्थन करना चाहिए और बिहार में सच्ची शराबबंदी के रास्ते पर बढ़ने में उनकी मदद भी करनी चाहिए, अगर वे डगमगाते हैं तो संभालना भी चाहिए और अगर भागने की कोशिश करते हैं तो दबाव भी बनाए रखना चाहिए।

नीतीश जी से आधी शिकायत हमें शराब को बढ़ावा देने के लिए थी और आधी शिकायत मुख्य रूप से इन दो वजहों से रही-
1. पहली इस बात के लिए कि लड़कियों को साइकिलें बांटकर उन्होंने सुर्खियां तो बटोरीं, लेकिन कुल मिलाकर बिहार की सरकारी शिक्षा को ध्वस्त कर दिया। उनके दूसरे टर्म में बिहार भर के शिक्षक भी आंदोलनरत् रहे। बच्चे भी आंदोलनरत् रहे। पढ़ाई का स्तर निचले पायदानों तक पहुंच गया। मिड डे मील में भ्रष्टाचार और लापरवाही इस हद तक बढ़ गई कि ग़रीबों के बच्चों को जगह-जगह ज़हरीला खाना खिलाया गया। छपरा के धर्मासती गंडामन गांव में तो भारत के इतिहास की सबसे दर्दनाक घटना हुई, जिसमें मिड डे मील खाने से 23 बच्चों की मौत हो गई थी।
2. दूसरी इस बात के लिए कि उनके पिछले कार्यकाल में बिहार में भ्रष्टाचार चरम पर पहुंच गया था और अपराधियों को सरकारी संरक्षण की घटनाओं के लिए सबूत जुटाने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी। वह साफ़ परिलक्षित होता था। इस बार भी विधानसभा में 135 ऐसे सदस्य पहुंचे हैं, जिनका इतिहास किसी न किसी रूप में दागदार है। नीतीश जी किस तरह उनपर लगाम कसे रखेंगे और भ्रष्टाचार को कैसे रोकेंगे, इसपर सबकी नज़र रहने वाली है, क्योंकि अगर वे ऐसा नहीं कर पाए, तो जंगलराज पार्ट-2 के आरोप से वे अपनी और लालूजी की साझा सरकार को बचा नहीं सकेंगे।

आशा करते हैं कि नीतीश जी ने एक कदम बढ़ाया है तो दूसरा कदम भी बढ़ाएंगे, ताकि उनकी सरकार सही दिशा में चलती हुई दिखाई दे। उन्हें हमारी पूरी शुभकामनाएं हैं।

धंधा चौपट होने के डर से सफाई तो आई, लेकिन विनम्रता नदारद!

(25 नवंबर 2015)

जब आमिर को लगा कि ये वाला पब्लिसिटी स्टंट महंगा पड़ गया है और इससे तो धंधा ही चौपट हो जाएगा, तो दो दिन बाद उनकी सफाई आई। हालांकि उनकी इस सफाई में मुझे विनम्रता कम, हेकड़ी अधिक दिखाई दे रही है।

आमिर कहते कि उनकी बात को गलत समझा गया। आमिर भरते देशभक्ति का दम। कहते कि न उनकी पत्नी, न वे भारत छोड़ना चाहते हैं। लेकिन अगर उनमें ज़रा भी विनम्रता होती तो वे यह भी कहते कि "अगर उनकी बात से किसी को ठेस पहुंची है, तो इसके लिए वे माफी चाहते हैं (या कम से कम उन्हें खेद है।) उनका इरादा वैसा नहीं था, जैसा समझा गया।"

जब आपकी बात से बड़ी संख्या में लोगों को ठेस पहुंचे, तो विनम्र लोग इसी तरह अपनी बात रखते हैं, लेकिन आमिर ने ऐसा कुछ नहीं कहा। आमिर ने कहा "I stand by everything that I have said in my interview" यानी "मैं अपने इंटरव्यू में कही गई हर बात पर कायम हूं।" यानी पिछले 6-8 महीनों में ही देश में ऐसा माहौल बन गया, जिसकी वजह से उनकी पत्नी ने देश छोड़ कहीं और बस जाने की बात कही- इस बात पर वे कायम हैं।

आमिर ने यह भी कहा कि "To all the people shouting obscenities at me for speaking my heart out, it saddens me to say you are only proving my point" यानी "आप सभी लोग जो दिल की बात कहने के लिए मुझपर चिल्ला-चिल्ला कर अश्लील टिप्पणियां कर रहे हैं, मुझे उदास/दुखी करते हैं और मेरी बात को सही साबित कर रहे हैं।"

अश्लील टिप्पणियां करने वालों का तो कोई समर्थन नहीं कर सकता, लेकिन आमिर ने सोचा कि जिन लोगों ने उन्हें सिर-आंखों पर बिठाया, अगर उन्होंने अप्रिय टिप्पणियां की, तो क्यों की? आमिर के दुख की परवाह सभी करें, लेकिन आमिर क्या उनकी परवाह न करें, जो आमिर के बयान से इस कदर दुखी हो गए कि आपा खो बैठे?

हम हर व्यक्ति से संयमित बयान की आशा करते हैं, लेकिन जिसने संयम खोया, हर वह व्यक्ति आमिर को ग़लत क्यों लगता है? आख़िर वह भी तो दुखी हुआ? उसके दिल को भी तो चोट पहुंची?

आमिर की बातों से यह भी लगा कि अश्लील टिप्पणियां करने वालों से तो वे दुखी हुए, लेकिन मर्यादित आलोचना करने वालों को भी अलग श्रेणी में रखकर नहीं देख रहे। अगर ऐसा है, तो क्या यही उनकी लोकतांत्रिक और सहिष्णुता भरी सोच है? इसी सोच के दम पर वे दूसरों की आलोचना कर रहे हैं?

किसी स्टार को ऐसा क्यों लगता है कि लोग अगर उसकी फिल्मों को पसंद करते हैं, तो आंख मूंदकर उसकी हर बात का भी समर्थन करेंगे? अगर आमिर को इस देश से असहमत होने का अधिकार है, तो इस देश को आमिर से असहमत होने का अधिकार क्यों नहीं है? इस देश में हम प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों सबसे असहमत हो सकते हैं, आमिर से क्यों नहीं हो सकते?

आमिर की इस सफाई से ऐसा लगता है कि वे अपने दोनों हाथों में लड्डू रखना चाहते हैं। अगर आप उनकी बात से सहमत हों, तब तो वे सही हैं ही, लेकिन अगर असहमत हुए, तो भी आप उन्हें ही सही साबित करेंगे। आमिर ख़ान होगे बड़े स्टार, लेकिन सिर्फ़ वही सही हैं और उनसे असहमत सारे लोग ग़लत? सिर्फ़ उन्होंने या उनके साथ खड़े लोगों ने ही सच्चाई का ठेका ले रखा है, बाकी सब झूठे हैं?

आमिर कहते हैं कि "To all those people who are calling me anti-national, I would like to say that I am proud to be Indian, and I do not need anyone's permission nor endorsement for that" यानी "जो लोग मुझे देश-विरोधी कह रहे हैं, मैं उनसे कहना चाहता हूं कि मैं भारतीय होने में गर्व महसूस करता हूं और इसके लिए मुझे किसी से इजाज़त लेने या पुष्टि करवाने की ज़रूरत नहीं है।"

बात ठीक है। अगर कोई उन्हें "देश-विरोधी" या "देशद्रोही" कहता है, तो ग़लत है। भारतीय होने में गर्व होना भी बहुत अच्छी बात है। लेकिन हम तो भारतीय होने में विनम्रता भी महसूस करते हैं। हमारे यहां कहा गया है- "विद्या ददाति विनयम्" यानी "ज्ञान हमें विनम्रता देता है।" लेकिन आमिर के पूरे जवाब मे विनम्रता का लेश-मात्र भी आप ढूंढ़ते रह जाएंगे।

एक तो आपने लोगों को चोट पहुंचाई। ऊपर से आप ही उन्हें क्रिटिसाइज़ भी कर रहे हैं, यह तो बहुत गलत बात है। हम उन लोगों का समर्थन नहीं करते, जिन्होंने आपको देशद्रोही कहा या गालियां दी, लेकिन आपने जिन लोगों को ठेस पहुंचाई, क्या आपको भी उनसे माफी नहीं मांगनी चाहिए थी या कम से कम खेद नहीं जताना चाहिए था?

आमिर ख़ान के किरण के देश छोड़ने के इरादे वाले बयान के बाद मैंने यह फ़ैसला नही किया था, क्योंकि तब तक मुझे उम्मीद थी कि आमिर अपने बयान को सुधार लेंगे, कलाकार हैं, भावनाओं में बह गए होंगे, लेकिन उनकी इस "अविनम्र सफ़ाई" के बाद मुझे उनसे कोई उम्मीद नहीं है। सो, मैं आगे से आमिर खान की कोई फिल्म नहीं देखूंगा।

Wednesday, November 25, 2015

‘पीके मोड’ से निकले नहीं और ‘दंगल मोड’ में घुस गए आमिर

पीके आए हैं का? दंगल काहे ठाने हैं?

(24 नवंबर 2015)

ऐसा लगता है कि आमिर ख़ान अभी पीके मोड से निकले भी नहीं हैं और दंगल मोड में घुस गए। पीके मोड में होने की वजह से अभी तक उन्हें लग रहा है कि वे इस गोले के जीव ही नहीं हैं। अगर वे अपने को इसी गोले का जीव समझ रहे होते, तो उन्हें पता होता कि धरती पर हर जगह कुछ न कुछ समस्या है और तुलनात्मक रूप से भारत काफी बेहतर है। दूसरी तरफ, दंगल मोड में घुस जाने की वजह से कांग्रेसी असहिष्णुता के चक्कर में फंसकर उन्होंने बिना बात दंगल छेड़ दिया है। 

बहरहाल, देश पर एहसान करने के लिए हम आमिर खान और किरण राव के शुक्रगुज़ार हैं। अगर वे देश छोड़कर चले गए होते, तो भारत पर विपत्तियों का पहाड़ टूट गया होता। हे आमिर खान साहब, आपने और आपकी पत्नी ने देश के 125 करोड़ लोगों को विपत्ति से बचा लिया, इसलिए ईश्वर करें, अगली फ़िल्म से आप 500 करोड़ की संपत्ति कमाएँ। कई लोग ऐसा कह भी रहे हैं कि सुर्खियों में बने रहने से आप लोगों की कमाई बढ़ जाती है और सुर्खियों से हट जाने से घट जाती है। 

वैसे आमिर ख़ान साहब, आप जो ऐसा बोल रहे हैं, उसके पीछे एक ख़ास किस्म की मानसिकता होती है। कई बेटे जब सक्षम हो जाते हैं, तो वे बात-बेबात माँ-बाप को घर छोड़ने की धमकी देने लगते हैं। आप दोनों को भी इस देश ने इतना सक्षम बना दिया है कि आप देश छोड़ने के बारे में सोच सकते हैं। हमें आपकी ऐसी सोच से दुःख तो हुआ, पर एतराज कोई नहीं, क्योंकि तसल्ली है कि भारत ने आपको इस लायक बना दिया है कि आप जहाँ भी जाएंगे, सुख और सम्मान से जी सकते हैं। 

लेकिन हे आमिर ख़ान साहब, कई बेटे ऐसे भी होते हैं, जो परिवार का हर दुःख साझा करते हैं, हर कष्ट सह लेते हैं, एक-दूसरे से कई तरह की असहमतियां और दिक्कतें होते हुए भी साथ खड़े रहते हैं। हमेशा घर को बेहतर बनाने के लिए सोचते और प्रयासरत् रहते हैं, लेकिन घर छोड़ने की बात कभी नहीं कहते। 

इसी देश में करोड़ों लोग ऐसे हैं, जो थानों से पिटकर और अदालतों से नाइंसाफी लेकर लौटते हैं, पर देश छोड़ने की धमकी नहीं देते। लाखों किसान क़र्ज़ में डूबकर आत्महत्या कर लेते हैं, पर देश छोड़ने की धमकी नहीं देते। करोड़ों दलितों, महादलितों, पिछड़ों, अगड़ों और यहाँ तक कि अल्पसंख्यकों के भी बच्चे स्कूल नहीं जा पाते और मजबूरी में मज़दूरी करते हैं, फिर भी वे देश छोड़ने की धमकी नहीं देते। 

दिल्ली में 3000 सिखों का क़त्ल हुआ, फिर भी उन्होंने देश छोड़ने की धमकी नहीं दी। कश्मीर से साढ़े तीन लाख पंडितों को खदेड़ दिया गया, अपने ही देश में शरणार्थी बन गए, फिर भी देश छोड़ने की धमकी नहीं दी। खुद मुसलमान भी गुजरात समेत कई दंगों में मारे गए, लेकिन उन्होंने देश छोड़ने की धमकी नहीं दी। जिस दादरी कांड पर इतनी राजनीति हो रही है, उसके मृतक अख़लाक़ के बेटे ने भी देश छोड़ने की धमकी देने के बजाय कहा- सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा। 

लेकिन हे आमिर ख़ान साहब, आप पर कभी ऐसी कोई विपत्ति नहीं आई, फिर भी आप देश छोड़ने की बात कह सकते हैं, क्योंकि आप मिस्टर परफैक्शनिस्ट हैं। आपको परफैक्ट देश चाहिए। अगर इस गोले पर वह परफैक्ट देश नहीं मिला, तो आप दूसरे गोले पर चले जाएंगे। 

अगर आप मिस्टर परफैक्शनिस्ट नहीं होते, तो किरण को समझाते कि आपके पास दौलत है, शोहरत है, लोगों का प्यार है, प्रभावशाली लोगों तक पहुँच है। प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति से आप जब चाहें, मिल सकते हैं। आपके साथ कोई नाइंसाफी होने की सम्भावना इस देश में न के बराबर है। आपने दो बार शादी की। दोनों बार अलग धर्म में की, फिर भी किसी ने एतराज नहीं किया, बल्कि आपका साथ ही दिया। आपने देश का दिल तोड़ने वाला बयान दिया, फिर भी आपके घर की सुरक्षा कड़ी कर दी गयी।

आपके समझाने पर भी किरण अगर नहीं समझतीं, तो किसी अच्छे मनोचिकित्सक से उनकी काउन्सिलिंग कराते। कई बार समाज से कट जाने और देश-काल-परिस्थितियों की समझ के लिए अखबार, टीवी और फिल्मों पर अधिक निर्भर हो जाने से भी मन में डर, अवसाद और असुरक्षा की भावना आ जाती है। अगर आपने कांग्रेस के फंदे में फंसकर राजनीतिक बयान नहीं दिया है और सच कहा है, तो ऐसा सिर्फ़ किरण के साथ नहीं हुआ है। बहुतों के साथ होता है। आपको पत्नी का इलाज कराना था। 

लेकिन आपने तो पत्नी का इलाज कराने की बजाय देश पर ही इल्ज़ाम मढ़ दिया! वाह आमिर वाह। 

मिस्टर परफैक्शनिस्ट की अदा निराली। 
खा-पी लो, फिर छेदो थाली।

कांग्रेस खेल रही गंदा खेल। बीजेपी का भी लगता मेल।

असहिष्णुता का हौवा खड़ा कर बांटने वाली राजनीति
(25 नवंबर 2015)
कांग्रेस पार्टी जिन्ना जैसी सेक्युलर पॉलिटिक्स कर रही है। अगर 10-15 साल वह सत्ता से बाहर रह गई, तो दोबारा देश का बंटवारा करा देगी। इस पार्टी ने पहले नेहरू को पीएम बनवाने के लिए देश का बंटवारा कराया। इस बार वह मोदी को पीएम पद से हटाने के नाम पर देश को बांट देगी।
दादरी कांड से पहले भी देश में कई दंगे हुए, लेकिन हिन्दुओं-मुसलमानों का ऐसा वैचारिक बंटवारा हमने नहीं देखा। पिछले डेढ़ महीने में कांग्रेस और सहयोगी दलों ने पेड, पूर्वाग्रही और ऑब्लाइज्ड बुद्धिजीवियों के सहारे असहिष्णुता का जैसा हौवा खड़ा किया है, उससे साफ़ है कि अंग्रेज़ों के असली मानसपुत्र, जिनका 'फूट डालो और राज करो' ही ध्येय है, कहीं नहीं गए हैं।
सत्ता के बिना कांग्रेस की जान बिना पानी की मछली की तरह तड़पने लगती है। यह वही पार्टी है, जिसकी नेता के चुनाव पर इलाहाबाद हाई कोर्ट से प्रश्नचिह्न लगा, तो देश में इमरजेंसी लगा दी; जिसकी नेता की हत्या हुई, तो तीन दिन के भीतर दिल्ली में सिखों की समूची पीढ़ी को तबाह कर दिया; जिसके दबंग नेता दलितों-पिछड़ों को बूथ तक पहुंचने ही नहीं देते थे और दशकों तक बूथ-कब्जे के सहारे इस देश में चुनाव जीतते रहे।
आज वही कांग्रेस देश को सहिष्णुता का पाठ पढ़ा रही है और असहिष्णुता का हौवा खड़ा कर रही है। विश्वस्त सूत्रों से मिल रही जानकारी के मुताबिक कांग्रेस और सहयोगी दलों ने बिहार-चुनाव में असहिष्णुता की बहस का परीक्षण-मात्र किया था। चूंकि यह परीक्षण कामयाब रहा है, इसलिए उनके हौसले और बुलंद हो गए हैं और अब वे इस प्रयोग को और लंबा खींचना चाहते हैं।
सच्चाई यह है कि असहिष्णुता की पूरी बहस देश से असहिष्णुता को ख़त्म करने के लिए नहीं, बल्कि उसे और हवा देने के लिए है। लोगों के मन से डर निकालने के लिए नहीं, बल्कि उन्हें और डराने के लिए है। कांग्रेस और उसके साथी दल कभी नहीं चाहते कि मुस्लिम इस देश में निडर होकर रहें। अगर उनके मन से डर निकल गया, तो इनकी सियासत ही समाप्त हो जाएगी।
बीजेपी के नीति-निर्माता भी या तो इतने नासमझ हैं कि कांग्रेस की इस विध्वंसकारी राजनीति को समझ नहीं पा रहे, या फिर इतने महीन, कि वे भी क्रिया और प्रतिक्रिया के खेल में अपना फ़ायदा देख रहे हैं। उन्हें भी लगता होगा कि मुसलमानों का ध्रुवीकरण अंततः हिन्दुओँ के ध्रुवीकरण में तब्दील होगा। इसीलिए उन्होंने अपने सभी औने-पौने-बौने नेताओं को खुला छोड़ रखा है। वे न उनपर लगाम कसते हैं, न उनपर कार्रवाई करते हैं। उल्टे मौका देखकर उन्हें पुरस्कृत भी कर देते हैं।
यह गंदा... बेहद गंदा खेल है।

Thursday, November 19, 2015

एक डकैत और एक बलात्कारी- दो विकल्प हों, तो किसे वोट देंगे आप?

सही उम्मीदवार की मांग है 'नोटा'
(1 अक्टूबर 2015)

कहा जाता है "यथा राजा तथा प्रजा।" जितना सही यह है, उतना ही सही यह भी है कि "यथा प्रजा तथा राजा।" राजा की दुश्चरित्रता प्रजा को भी चरित्र-भ्रष्ट करती है और दुश्चरित्र प्रजा को भी सद्चरित्र राजा की ज़रूरत महसूस नहीं होती है।

हमारे देश और राज्य में आज जिस जातिवाद, सांप्रदायिकता और भ्रष्टाचार का बोलबाला है, वह भी इसीलिए है कि एक तरफ जहां जातिवादी, सांप्रदायिक और भ्रष्ट नेता तरह-तरह के हथकंडों से लोगों में एक-दूसरे के लिए विरोध भरते हैं और उन्हें असली मुद्दों से भटकाते हैं, वहीं जातिवादी, सांप्रदायिक और भ्रष्ट नागरिक भी उन्हीं लोगों को अपना प्रतिनिधि चुनते हैं, जो उन्हीं की तरह बंद सोच का शिकार हो।

बहरहाल, लोकतंत्र हमें यह अधिकार देता है कि हम किसी भी पार्टी या उम्मीदवार का समर्थन करें और उसे वोट दें। लेकिन आम तौर पर हम देखते हैं कि चुनाव में हमारे पास बड़े सीमित विकल्प होते हैं। अक्सर हमारे सामने हमारे मन का उम्मीदवार नहीं होता और मजबूरन हमें उन्ही में से किसी एक को चुनना पड़ता है, जिन्हें मुख्य धारा की राजनीतिक पार्टियों ने टिकट दिया होता है। यानी हम किसी वंश के कीड़े-मकोड़े या फिर किसी धनबली, बाहुबली, जातिवादी, सांप्रदायिक या भ्रष्ट को वोट दे आते हैं।

जिस तरह मौजूदा व्यवस्था हमें सीमित विकल्प देती है, उसी तरह हमारे पास इस व्यवस्था में बदलाव लाने के विकल्प भी सीमित हैं। ऐसा कोई रामबाण नहीं है, जिससे एक झटके में जातिवाद और सांप्रदायकता खत्म हो जाएगी और राजनीतिक दल सकारात्मक राजनीति करने लगें और साफ-सुथरे लोगों को टिकट देने लगें। इसलिए बदलाव चाहने वाली ताकतो को अक्सर विकल्पों में से विकल्प निकालने की योजना पर काम करना होता है।

नोटा भी ऐसी ही सीमित शक्ति वाला एक विकल्प है, लेकिन बड़ी संख्या में इसके इस्तेमाल से कई और विकल्पों के रास्ते खुल सकते हैं। मैंने नोटा को कभी ब्रह्मास्त्र नही बताया। नोटा एक नयी चीज़ है, जो सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर चुनावों में लागू की गई है। ठीक है कि कई लोगों को लगता हो कि नोटा डालने से क्या होगा? कोई न कोई तो फिर भी जीतेगा। वोट बर्बाद हो जाएगा। वगैरह-वगैरह।

मेरे हिसाब से यह सोच सही नहीं है। वास्तव में कोई वोट बर्बाद नहीं होता। अगर वोट बर्बाद होने का कॉन्सेप्ट सही होता, तो हमारे संविधान-निर्माताओं को भारत में द्विदलीय व्यवस्था लागू करनी चाहिए थी, क्योंकि किसी भी चुनाव में कोई एक ही जीतता है और कोई एक ही मुख्य मुकाबले में होता है और दूसरे नंबर पर रहता है। तीसरे, चौथे, पांचवें, छठे और बाद के सारे उम्मीदवारों को दिये वोट इस सोच के मुताबिक बर्बाद हो जाते हैं।

इसलिए जैसे तीसरे, चौथे, पांचवें, छठे और बाद के सारे उम्मीदवारों को दिये वोट का अपना महत्व है, उसी तरह नोटा में दिये गए वोट की भी अपनी सार्थकता है। नोटा वोट से दो फायदे होते हैं। एक यह- कि यह मन के ख़िलाफ़ जाकर किसी को वोट देने की आपकी मजबूरी खत्म कर देता है। दूसरा यह- कि आपको आत्मसंतोष रहता है कि चाहे जिसने जिसका समर्थन किया हो, कम से कम आपने किसी गलत का समर्थन नहीं किया... किसी गलत को गद्दी तक पहुंचाने में कम से कम आपका रोल नहीं है।

और अच्छे से समझिए। अगर किसी चौक-चौराहे पर दो बदमाश झगड़ा कर रहे हों, तो आप उनमें से किसी एक का साथ तो नहीं दे देते? अक्सर गैंगवार होते रहते हैं। आप किसी एक गैंग के पक्ष में झंडा लेकर खड़े तो नहीं हो जाते? वहां आप कहते हैं कि दोनों बदमाश हैं और दोनो गलत है। लेकिन जैसे ही आप चुनाव में जाते हैं, आप कहने लगते हैं कि दोनों बदमाश हैं, फिर भी एक का साथ तो मुझे देना ही पड़ेगा। नोटा... अंतरात्मा के विरुद्ध जाने की आपकी इस मजबूरी को तो कम से कम ख़त्म कर ही देता है!

नोटा में और मतदान नहीं करने में अंतर है। अगर आप मौजूदा व्यवस्था, राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों से चिढ़कर वोट नही डालते हैं, तो वह कही दर्ज नही होता। यह नही माना जाता कि आप नाराज़ हैं, इसलिए वोट नहीं डाला। लेकिन जब आप नोटा में वोट डालेंगे, तो यह दर्ज होगा कि आप नाराज़ हैं। आपके सामने उम्मीदवारों के जितने विकल्प दिये गए, वे आपकी आकांक्षाओं के हिसाब से नहीं थे।

मेरे पिछले वक्तव्य को कुछ साथियों ने ठीक से पढ़ा नहीं। आखिरी पैराग्राफ में मैने साफ़ लिखा- "उम्मीदवार देखो और वोट दो। जहां जो उम्मीदवार अच्छा है उसे जिता दो। बाकी किसी के बेेटे-पोते-भाई-भतीजे-नाती-दामाद-बहू-पतोहू की परवाह मत करो। जहां कोई अच्छा न लगे, डाल दो सारा वोट "नोटा" पर।"

कुछ साथियों ने इसे नेगेटिव सोच और फ्रस्ट्रेशन का नतीजा बताया। अब अगर इससे भी किसी की असहमति है, तो मैं उन लोगो को यही सलाह दूंगा कि आप लोग "अपमाननीय" को "माननीय" बनाते रहें। उदाहरण के लिए, अगर बलात्कारी और डकैत दो विकल्प हों, तो इनमें से जो डकैतों के पराक्रम के मुरीद हैं, वे डकैत को वोट दें और जिन्हें बलात्कारियों के बलात्कार की कथाएं रोमांचक लगती हैं, वे बलात्कारी को वोट दें।

व्यक्तिगत मेरी सोच यही है कि मेरा वोट किसी भी ग़लत के पक्ष में नहीं जाना चाहिए। अगर मेरे वोट के बिना भी जीत-हार का फ़ैसला हो रहा है तो हो जाने दीजिए, सरकार बन रही है तो बन जाने दीजिए। इस देश में बहुत कुछ ऐसा हो रहा है, जिसमें हमारी-आपकी कोई भूमिका नहीं है। इसलिए कम से कम मेरी अतरात्मा मुझे धिक्कारेगी तो नहीं कि मैंने भी उसे ही वोट दे दिया, जिसे मैं पसंद नहीं करता था... कि मैंने भी किसी को वंश बढ़ाने के लिए, किसी को धनबल-बाहुबल बढ़ाने के लिए, किसी को अगड़ा-पिछड़ा करने के लिए, किसी को हिन्दू-मुसलमान करने के लिए अपनी रज़ामंदी दे दी। मेरे वोट की सबसे बड़ी सार्थकता मेरे विचारों की रक्षा में है, न कि किसी "अपमाननीय" को "माननीय" बना देने में।

बाकी मैं मानता हूं कि अभी हमारे बंधु-बांधव नोटा को इसलिए फिजूल मान रहे हैं, क्योंकि उन्होंने इसका उस पैमाने पर इस्तेमाल ही नहीं किया है। ज़रा सोचिए अगर किसी चुनाव क्षेत्र में किसी भी उम्मीदवार से ज़्यादा वोट नोटा को मिले, तो राजनीतिक दलों के कान तो खड़े हो जाएंगे, उनकी बेइज्जती तो होगी, आगे लड़ाई लड़ने का एक आधार तो बनेगा। दोबारा चुनाव का रास्ता तो खुलेगा। राजनीतिक दलों को यह तो समझ में आएगा कि डकैतों और बलात्कारियों जैसा विकल्प देने को जनता अब बर्दाश्त नहीं करेगी।

...और अगर एक से अधिक क्षेत्रों में ऐसा हो जाए, तो सोचिए कितना असर हो सकता है। मेरा कहना है कि नोटा को हल्के में लेने के बजाय एक बार इसका पुरज़ोर इस्तेमाल क्यों नहीं करते हैं हम? फिर करते रहेंगे इसकी ताकत की समीक्षा। नोटा को एक "नेगेटिव वोट" के रूप में नहीं, एक "उम्मीदवार" के रूप में देखिए। फिर आपको समझ आएगा कि नोटा क्या चीज़ है।

जैसे आपके इलाके में अगर 10 उम्मीदवार हैं तो यह मत समझिए कि आपके सामने 10 ही विकल्प हैं। आप यह समझिए कि आपके सामने 11 उम्मीदवार... 11 विकल्प हैं। अगर आपका 11वां विकल्प... 11वां उम्मीदवार... यानी नोटा... बाकी 10 उम्मीदवारों और 10 विकल्पों से अधिक वोट ले आएगा, तो मैं आपको गारंटी देता हूं कि उसी दिन से क्रांति और बदलाव की शुरुआत हो जाएगी।

दिल्ली के लोगों ने मुख्यधारा के राजनीतिक दलों के ख़िलाफ़ एक और राजनीतिक पार्टी... आम आदमी पार्टी खड़ी की। क्या फ़ायदा हुआ? 100 भ्रष्ट पार्टियों के बाद 101वीं भ्रष्ट पार्टी खड़ी हो गई। इसलिए समाधान यह भी नहीं है कि हम रोज़-रोज़ नई-नई पार्टियां खड़ी करते चलें। समाधान यह है कि इन्हीं पार्टियों को ज़िम्मेदार बनाने की कोशिश करे।

सारे झूठे-मक्कारों, ढोंगी-फरेबियों, चोर-उचक्कों, जातिवादियों-सांप्रदायिकों, भ्रष्ट-लुटेरों पर आप भरोसा करते हैं, एक बार मुझपर भी तो भरोसा करके देखें।

सनसनी और उन्माद बेचने वालों से सावधान!

(1 अक्टूबर 2015)
वे भी उन्मादी थे, जिन्होंने दादरी में गोमांस खाने के शक में एक व्यक्ति की हत्या कर दी। और वे भी शातिर हैं, जो अब इसपर राजनीति करके देश के अल्पसंख्यकों में असुरक्षा की भावना और बहुसंख्यकों के ख़िलाफ़ गुस्सा पैदा करना चाहते है।
मुझे संदेह है कि बिहार-चुनाव को प्रभावित करने के मकसद से ही दिल्ली के पास के इलाके में ऐसी घटना कराई गई है, ताकि मीडिया में इसे पूरी पब्लिसिटी मिले और बुद्धिजीवियों का इसपर राष्ट्रव्यापी विलाप हो। यह घटना दोनों में से किसी भी एक पक्ष के इशारे पर हुई हो सकती है।
समझदार लोगों का काम तो यह होना चाहिए कि जहां दो संप्रदायों का मामला हो भी, वहां भी संयमित रहें और फिजूल की टिप्पणियों से बचें, पर यहां तो जहां ऐसा नहीं भी होता है, वहां भी वैसा ही रंग देने की कोशिश की जाती है।
बुद्धिजीवी-धर्म क्या है- आग में पानी डालना या आग में घी डालना? दरअसल देश में दो ताकतवर "परिवार" हैं। एक "संघ परिवार।" दूसरा "संघ-विरोधी परिवार।" और साम्प्रदायिकता इन दोनों परिवारों को सूट करती है।
दोनों परिवारों की असली फ़ौज वे अपराधी या उन्मादी नहीं हैं, जो कही मार-काट करते हैं, बल्कि उनकी असली फ़ौज वे बुद्धिजीवी हैं, जो बात का बतंगड़ बनाए रहते हैं और देश के दो सबसे बड़े समुदायों में झगड़ा लगाए रखते हैं।
"संघ-परिवार" से ठेका पाए बुद्धिजीवी बहुसख्यकों के दिमाग में यह भरते रहते हैं कि अल्पसंख्यकों का बड़ा "तुष्टीकरण" हो रहा है। हालांकि मैं आज तक नहीं समझ पाया कि अगर "तुष्टीकरण" हो रहा, तो "पुष्टीकरण" क्यों नहीं हो रहा?
इसी तरह "संघ-विरोधी परिवार" से ठेका पाए बुद्धिजीवी वन-प्वाइंट एजेंडा बनाकर अल्पसंख्यकों को डराने और उनमें असुरक्षा की भावना भड़काने का काम करते हैं। मकसद यह होता है कि हमारे आकाओं से छिटकने के बारे में सोचना भी मत, वरना इस देश में दूसरे धड़े के लोग तुम्हें निगल जाएंगे।
दोनों धड़े के बुद्धिजीवी अपने-अपने आकाओं के राजनीतिक फायदे के हिसाब से टार्गेट वोटरों का ध्रुवीकरण करने में जुटे रहते हैं। ज़ाहिर है, यह ध्रुवीकरण जब भी होता है, दोनों तरफ होता है। इससे देश में बेचैनी का वातावरण बना रहता है।
इसलिए मेरा ख्याल है कि जनता को सिर्फ़ राजनीतिक दलों से ही नहीं, बिके हुए बुद्धिजीवियों की फ़ौज से भी सावधान रहने की ज़रूरत है। चूंकि आजकल इन दोनों का सबसे बड़ा औजार मीडिया है, इसलिए मीडिया से भी सावधान रहने की ज़रूरत है।
वो ज़माना गया, जब मीडिया में आने वाली हर बात पर आप आंखें मूंदकर भरोसा कर सकते थे। अब हर बात पर आंखें खोलकर संदेह कीजिए, क्योंकि ज़रूरी नही कि मीडिया जो कहानी बता रहा है, सच ही हो। टैगलाइन में सच का ढिंढोरा पीटना इस बात की गारंटी नहीं है कि सचमुच वे सच के पुजारी हैं।
आज के मीडिया का अधिकांश कॉन्टेन्ट बिका हुआ है और किसी न किसी के एजेंडे से संचालित है। ठेके पर चल रहा है मीडिया। इसलिए झूठ, अफवाह, अंधविश्वास, सनसनी और उन्माद बेचने वालों के चक्कर में फंसे तो अपना नुकसान ख़ुद करेंगे। भावनाओं पर काबू रखिए और अपना काम करते रहिए।

जानवर खाने के लिए मर रहा और मार रहा है आदमी

1 अक्टूबर 2015
जानवर खाने के लिए मर रहा और मार रहा है आदमी। इसीलिए कहता हूं कि जीव-हत्या बंद कर दो और शाकाहारी बनो। भारत सदानीरा नदियों और उर्वर मिट्टी का देश है। यहां हर साल लाखों टन गेहूं-चावल-आलू-टमाटर-फल-सब्जियां वगैरह सड़ जाती हैं, फिर भी खाने के लिए पशु-पक्षियों की हत्या? ये तुम्हारी कैसी भूख-प्यास है, जो पशु-पक्षियों के रक्त-मांस से ही बुझती है?
मैं हिंसा के शिकार हर व्यक्ति के लिए दुखी हूं, लेकिन पशु-पक्षियों की अनवरत् होती हत्याओं पर भी मेरा हदय उतना ही तड़पता है। मुझे तुम्हारे किसी धर्म से कोई लेना-देना नहीं। तुम लोग अफीम पी-पीकर मदहोश रहो। मैं तो आदमियों के हत्यारों का भी विरोध करूंगा और जानवरों के हत्यारों का भी। इस धरती पर ईश्वर के बनाए सभी जीवों का बराबर का हक है।

मरने में क्या सिर्फ़ इंसानों को तकलीफ़ होती है?

(2 अक्टूबर 2015)
जानना चाहता हूं कि
1. मरने में क्या सिर्फ़ इंसानों को ही तकलीफ होती है या गाय, भैंस, बकरों, सूअरों, कुत्तो, ऊंटों, मुर्गों, कबूतरों वगैरह को भी होती है?
और,
2. कम से कम जिन पशुओं का दूध पीकर तुम्हारे बच्चे बड़े होते हैं (गाय, भैंस, बकरी वगैरह), क्या उन पशुओं की हत्या और मांस खाने की हवस भी तुम नहीं छोड़ सकते?
अगर तुम्हारा जवाब "नहीं" भी होगा, तो भी मुझे परेशानी नही, क्योंकि जिस दुनिया में स्वार्थ के लिए भाई भाई को गोली मार देता है और बूढ़े हो जाने के बाद मां-बाप वृद्धाश्रमों में भेज दिये जाते हैैं, वहां मैं जानवरों के लिए दया-ममता क्यों जगाना चाह रहा हूं?

जातिवादियों और सांप्रदायिकों के हाथों हाइजैक हुआ बिहार चुनाव

(3 अक्टूबर 2015)
जिन सोकॉल्ड सेकुलर बुद्धिजीवियों और सेकुलर मीडिया ने दादरी की घटना को इतना तूल दिया है, वे या तो ख़ुद किसी कॉम्युनल एजेंडे पर चल रहे हैं, या फिर कॉम्युनल लोगों के एजेंडे के हिसाब से यूज़ हो गए।
आम तौर पर तो यही माना जाता रहा है कि सांप्रदायिक मामलों की चर्चा और रिपोर्टिंग में संयम बरतना चाहिए, लेकिन जब माहौल बिहार जैसे महत्वपूर्ण राज्य में चुनाव का हो, तो शातिर लोग संयम बरतेंगे या उसपर रोटियां सेंकेंगे?
मुस्लिम के माथे के मुकुट लालू यादव कह रहे हैं कि हिन्दू भी बीफ खाते हैं और हिन्दू के हृदय के हार गिरिराज सिंह कह रहे हैं कि लालू अपने बयान के लिए माफी मांगें, नहीं तो आंदोलन किया जाएगा। बिहार में मंडल पार्ट-2 के बाद कमंडल पार्ट-2 तो होना ही था!
यह चुनाव अब पूरी तरह से जातिवादी और सांप्रदायिक शक्तियों के हाथों हाइजैक हो चुका है। जातिवाद और सांप्रदायिकता ऐसे मिक्स हुई है कि जातिवादी लोग भी सांप्रदायिक नुस्खे आजमा रहे हैं और सांप्रदायिक लोग भी जातिवादी नुस्खे अपना रहे हैं।
अब इस चुनाव में कोई जीते-हारे, व्यक्तिगत मेरी कोई दिलचस्पी नहीं बची।

बलि के बकरों के लिए किसका काँपता है कलेजा?

(3 अक्टूबर 2015)
अख़लाक़ को किसी हिन्दू ने नहीं मारा। हिन्दू इतने पागल नहीं होते हैं। उसे भारत की राजनीति ने मारा है, जिसके लिए वह बलि का एक बकरा मात्र था। सियासत कभी किसी हिन्दू को, तो कभी किसी मुस्लिम को बलि का बकरा बनाती रहती है। इसलिए जिन भी लोगों ने इस घटना को हिन्दू-मुस्लिम रंग देने की कोशिश की है, वे या तो शातिर हैं या मूर्ख हैं।
बिहार चुनाव से पहले इस तरह की किसी घटना की आशंका पहले से थी, लेकिन बिहार में अभी ऐसी घटना करना खतरे से खाली नहीं था, इसीलिए इसके लिए हज़ार किलोमीटर दूर राष्ट्रीय मीडिया और बुद्धिजीवियों की नाक के नीचे उत्तर प्रदेश के उस इलाके को चुना गया, जिसे पहले से ही इस तरह की राजनीति का एक्सपेरिमेंट ग्राउंड बनाकर रखा गया है।
घटना के मास्टरमाइंड को पता था कि दिल्ली का मीडिया TRP का लोभ संवरण नहीं कर पाएगा। साथ ही, उसमें भेड़चाल की प्रवृत्ति भी है और वह मैनेजेबल भी है। इतना ही नहीं, इस मामले की जितनी चर्चा होगी, उनका मकसद उतना पूरा होगा। मकसद था विवाद को अंततः गाय के इर्द-गिर्द लेकर आना, जो कि करीब-करीब प्राप्त हो चुका है।
इस तरह की घटनाओँ में व्यक्ति और स्थान महत्वपूर्ण नहीं होता, वह सेंटीमेंट महत्वपूर्ण होता है, जिसमेँ देश की बड़ी आबादी को प्रभावित करने की क्षमता होती है। इसलिए इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि यह घटना दादरी के एक छोटे से गाव में कराई गयी है, इसमें पूरे देश में ध्रुवीकरण कराने की क्षमता है। बिहार में भी।
इस ध्रुवीकरण पॉलिटिक्स के लिए औज़ार बनाए गए दो लाउड-स्पीकर। पहले स्थानीय स्तर पर छोटे लाउड स्पीकर का इस्तेमाल करके अफवाह फैलाई गई और फिर बड़े लाउडस्पीकर (मीडिया) को यूज़ करके राष्ट्रीय स्तर पर सनसनी और उन्माद फ़ैलाने की कोशिश हुई। अब अख़लाक़ की मौत से देश के मुसलमान भी आहत हैं और गाय की हत्या नहीं रुक रही, इसलिए हिन्दू भी आहत हैं।
बात कड़वी है, लेकिन सच यही है कि बलि होने वाले बकरे और बकरे की अम्मा को चाहे जितना दर्द होता हो, बाकी सबको मज़ा आता है। इस मामले में भी मज़ा लूटने वालों की फ़ौज देखिए- ओवैसी से लेकर लालू, केजरीवाल, अखिलेश और राहुल तक। गिरिराज से लेकर प्राची तक।
जैसे अपने स्वाद के लिए बेजुबान बकरे की बलि देने में आपको ममता नहीं आती, वैसे ही अपने फायदे के लिए कमज़ोर लोगों को बलि का बकरा बना लेने में सियासतदानों को भी उनका ज़मीर नहीं धिक्कारता। आपने जैसी दुनिया चुनी है, उसमें ताकतवर और शातिर लोग अपने से कमज़ोर बकरों की बलि इसी तरह चढ़ाते रहेंगे। अपने से कमज़ोरों के लिए न आपका दिल कांपेगा, न आपसे मज़बूतों का आपके लिए कांपेगा।
इसलिए हाहाकर करने से कुछ नहीं होगा। सोचने और समझने से कुछ हो सकता है।

क्या अखलाक मामले की "हैप्पी एंडिंग" होने वाली है?

(4 अक्टूबर 2015)
क्या अखलाक मामले की "हैप्पी एंडिंग" होने वाली है?
---इतना मुआवजा दे दो कि मुआवजा ही इंसाफ़ जैसा लगने लगे और परिवार में इंसाफ़ के लिए उतनी बेचैनी न बचे।
---जिन लोगों को मुसलमानों के वोट चाहिए, उन्हें मुसलमानो के वोट मिल जाएं।
---जिन लोगों को हिन्दुओं के वोट चाहिए, उन्हें हिन्दुओं के वोट मिल जाएं।
---मीडिया के महानुभावो को मसाला मिल जाए।
---दो-दो कौड़ी के नेताओ को पब्लिसिटी मिल जाए।
---और हिन्दुओं-मुसलमानों दोनों के मन पर इतनी खरोंचें बच जाएं, कि सेक्युलर और कॉम्युनल दोनों तरह के डॉक्टरों के मरहमों की बिक्री भी बदस्तूर जारी रहे।
अलविदा अख़लाक़... ऐसा लग रहा है कि तुम्हारा बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा!

मीडिया मालिकों के नाम खुला पत्र

(5 अक्टूबर 2015)
हे अरुण पुरी जी, सुभाष चंद्रा साहब, रजत शर्मा जी, राजीव शुक्ला जी, प्रणय रॉय साहब तथा अन्य मीडिया मालिको- आप सभी लोगों से मेरा सीधा सवाल है कि अगर आपके संपादक आपके चैनलों पर आज़म ख़ान, संगीत सोम, अकबरुद्दीन ओवैसी, असदुद्दीन ओवैसी, साक्षी महाराज और साध्वी प्राची जैसे लोगों के ज़हरीले बयान नहीं दिखाएंगे... तो क्या आप उन्हें नौकरी से निकाल देंगे?
ये जो आपके चैनलों पर ग़ैर-ज़िम्मेदाराना तरीके से उन्माद का व्यापार हो रहा है, उसके लिए आपके संपादकों के मन में बैठा नौकरी छिन जाने का डर ज़िम्मेदार है या फिर वे स्वयं ही सोच के स्तर पर दिवालिया हो चुके हैं? क्या अपने चैनलों को लोकप्रिय बनाने के ज़िम्मेदार तरीके उन्हें नही मालूम हैं? क्या आपको नहीं लगता कि आप सभी मालिकान फॉर्मूला फिल्मों की तरह फॉर्मूला चैनल चला रहे हैं?
आए दिन आपके चैनलों पर कोई न कोई सर्वे होता है। एक सर्वे इस बात का भी तो कराइए कि पब्लिक आप लोगों के बारे में क्या सोच रही है। मेरे पास तो फीडबैक यह है कि लोग मजबूरन आपके चैनल देखते ज़रूर हैं, लेकिन देखते हुए गालियां भी ख़ूब देते हैं... ठीक उसी तरह जैसे मजबूरी में लोग किसी न किसी उम्मीदवार या पार्टी को वोट तो दे देते हैं, लेकिन उनसे नफ़रत भी उतनी ही करते है।
चेतावनी : अलग-अलग चैनलों में काम कर रहे साथी इस पोस्ट को लाइक न करें। ऐसा करने से आपकी नौकरी जा सकती है।

अच्छा है कि मैं किसी पुरस्कार की दौड़ में नहीं

(8 अक्टूबर 2015)
कई "महान" लोग पहले पुरस्कार लेने के लिए राजनीति करते हैं, फिर राजनीति करते हुए पुरस्कार लौटा भी देते हैं। ऐसे माहौल में अच्छा ही है कि मैं किसी दौड़ में नहीं हूं। पिछले 18-19 साल से, यानी बीस की ही उम्र से, जबसे समझने-बूझने की शक्ति आई, किसी पुरस्कार के लिए प्रविष्टि नहीं भेजी। यहां तक कि किताबें भी छपीं, लोगों ने तारीफ़ भी की, प्रकाशकों ने कहा कि पुरस्कार से किताबों की मांग बढ़ती है, फिर भी कहीं आवेदन नहीं दिया। पुरस्कार नहीं मिलता, तो चर्चा भी कम होती है, लेकिन मुझे यह ज़्यादा श्रेयस्कर लगता है।
बात कहने और सुनने में बुरी लग सकती है, लेकिन इसे मिसाल के ही तौर पर समझें। किसी से किसी की तुलना का मेरा इरादा नहीं है। जैसे आप कहीं रोटी का एक टुकड़ा फेंक देते हैं और उसके बाद गली के सारे कुत्ते जिस तरह से एक साथ उस पर झपटते हैं, झांव-झांव करते हैं और एक-दूसरे को काटने दौड़ते हैं, ठीक उसी तरह हिन्दी में पुरस्कारों के लिए होता है। यहां मिलने वाला हर पुरस्कार इस बात की गारंटी तो नहीं है कि आप अच्छे लेखक हैं ही, लेकिन इस बात का प्रमाणपत्र ज़रूर है कि आप एक बेहद चालाक किस्म के रैकेटियर हैं।
जब माहौल ऐसा हो, तो जो पुरस्कार ले रहा है, पहले तो मुझे उसी पर तरस आती है, फिर लौटाने वालो के बारे में क्या कहूं? मुझे यह पूरी बात ही बेमानी लगती है कि किसे पुरस्कार मिल गया और किसने लौटा दिया।

बिहार चुनाव में ध्रुवीकरण के लिए पुरस्कार लौटा रहे हैं लेखक

(14 अक्टूबर 2015)
किसी दिन पुरस्कार लौटाने के लिए यह ज़रूरी है कि आज पुरस्कार बटोर लो। पुरस्कार मिले तो भी सुर्खियां मिलती हैं। मिला हुआ पुरस्कार लौटा दो तो और अधिक सुर्खियां मिलती हैं। समूह में पुरस्कार लौटाना चालू कर दो तो क्रांति आ जाती है। ऐसी महान क्रांति देखकर मन कचोटने लगा है। काश...
---उस वक़्त किसी ने पुरस्कार लौटाना था, जब देश में लाखों किसान आत्महत्या करते रहे। आज न जाने कितने किसानों का घर-परिवार उजड़ने से बच गया होता।
---उस वक़्त किसी ने पुरस्कार लौटाना था, जब देश में पहला दंगा हुआ। कश्मीर, दिल्ली, भागलपुर, मुंबई, गुजरात, मुज़फ्फरनगर में हज़ारों लोगो की जानें न जाती।
---उस वक़्त किसी ने पुरस्कार लौटाना था, जब देश में भ्रष्टाचार का पहला मामला सामने आया होगा। आज चारा, वर्दी, टूजी, कॉमनवेल्थ, कोल, एनआरएचएम, व्यापम जैसे घोटाले न हुए होते।
---उस वक़्त किसी ने पुरस्कार लौटाना था, जब पहली बार किसी रईसजादे या नेता की औलाद ने देश की किसी बेटी की आबरू से खेला होगा। आज कितनी माताओं-बहनों की आबरू बच गई होती।
---कोई इस बात के लिए भी पुरस्कार लौटाना था कि रोज़ न जाने कितने बच्चे-बच्चियों की तस्करी हो रही है। वे ग़ायब करा दिये जा रहे हैं और मां-बाप उन्हें ढूंढ़ते-ढूंढ़ते, थानों में रपटें लिखाते हुए, अखबारों में इश्तहार देते हुए समाप्त हो जाते हैं।
---किसी ने इस बात के विरोध में भी पुरस्कार लौटाना था कि 68 साल बाद भी देश की सरकारें सभी बच्चों को स्कूल और मरीज़ों को इलाज की समुचित सुविधाएं तक नहीं दे पाई हैं, क्यों? स्कूल और अस्पताल तो देश की पहली और सबसे बड़ी ज़रूरत हैं। इनके लिए भी तो किसी ने पूछना था न... कि और कितने दशक लगेंगे तुम्हें हमारे बच्चों के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य का इंतजाम करने में? और अगर नहीं कर सकते तो रखो अपने पुरस्कार और प्रमाणपत्र!
कहना पड़ेगा कि लेखकों में क्रांति की ऐसी अपूर्व चेतना अगर पूर्व में ही आ गई होती तो देश 68 साल पीछे नहीं होता। देश को 68 साल पीछे ढकेलने के लिए ये लेखक लोग भी ज़िम्मेदार हैं। जिन लोगों ने इन चीज़ों के विरोध में अपने पुरस्कार नहीं लौटाए, उनके नाम तमाम दस्तावेजों से मिटा दो। वे लोग किसी काम के नहीं थे।
ये सवाल उठा रहा हूं, इसका मतलब कतई नहीं कि मैं बीजेपी या मोदी सरकार का समर्थक हूं। यह ठीक है कि "पुरस्कृत" लोगों की आवाज़ें दूर तक पहुंचती हैं और हम जैसे "अपुरस्कृतों" की आवाज़ें नक्कारखाने में तूती की बनकर रह जाती हैं, लेकिन दादरी कांड पर तमाम लोगों से पहले मैंने लिखा कि यह घटना हुई नहीं, कराई गई है बिहार-चुनाव को प्रभावित करने के लिए।
...लेकिन क्या पहली बार इस देश में कोई हिन्दू या मुसलमान गंदी राजनीति या सांप्रदायिक उन्माद या दंगे का शिकार हुआ है? और बात सिर्फ़ सेलेक्टिव दंगों की ही क्यों? आज़ाद भारत में इन सभी दंगों से बड़ी त्रासदी तो हुई कश्मीर में लाखों पंडितों के साथ, जिन्हें अपनी ही ज़मीन, अपने ही घरों, अपने ही राज्य से मारकर भगा दिया गया और कश्मीर को देश का अभिन्न अंग कहने वाली तमाम सरकारें 25 साल बाद भी उन्हें दोबारा बसा नहीं पाई हैं।
गुजरात दंगे में एक हज़ार लोग मारे गए। दिल्ली दंगे में तीन हज़ार लोग मारे गए। लेकिन कश्मीर में अनगिनत पंडित मारे गए। उनकी औरतों के साथ बलात्कार हुआ। कई लड़कियों की जबरन दूसरे धर्म के लोगों के साथ शादी कराई गई। धर्मांतरण हुआ। घरों पर पोस्टर चिपका दिए गए कि कश्मीर छोड़कर नहीं गए तो मारे जाओगे। अंततः तीन लाख से ज़्यादा लोग विस्थापित हो गए। इनमें से किसी के भी साथ अखलाक के परिवार से कम ज़ुल्म नहीं हुआ।
...लेकिन इस देश के 'पुरस्कृत' लेखकों की संवेदना और समझ देखिए कि दंगों के ज़िक्र में वे दिल्ली, मुंबई, गुजरात, मुज़फ्फरनगर सबकी चर्चा करते हैं, पर कश्मीर की चर्चा ही नहीं करते। तमाम दंगों के विस्थापित देर-सबेर बसा दिये गए, लेकिन कश्मीर के विस्थापित अगर आज तक बसाए नहीं जा सके, तो यह अनुल्लेखनीय क्यों? अपने ही देश की सरहद में इतने बड़े पैमाने पर योजनाबद्ध तरीके से दीर्घकाल तक चले सांप्रदायिक दंगे, आतंक और विस्थापन पर आज तक किसी ने पुरस्कार क्यों नही लौटाया?
सवाल उठता है कि पुरस्कार लौटाना कब ज़रूरी समझते हैं आप? कांग्रेस और दूसरी पार्टियों के राज में कैसे भी कुकर्म चलते रहें, आपकी आत्मा में गांधी जी के तीनों बंदर क्यों घुस जाते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि आप जिन राजनीतिक दलों की चापलूसी करते रहे हैं, आज जब उनके पास दिखाने को चेहरा नहीं बचा, तो उन्होंने आपको आगे कर दिया है?
सच्चाई यह है कि सांप्रदायिक दंगे, उन्माद और असहिष्णुता से मुकाबला तो इस देश के साधारण लोग ही करते हैं। आप लोग तो बस सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करा रहे हैं अपने आकाओं के निर्देश पर। वरना बड़ी-बड़ी त्रासदियों के बीच पुरस्कारों, फेलोशिप और यात्राओं के लिए जोड़-तोड़ करते रहने वाले आप लोग ऐन बिहार चुनाव के बीच ऐसे क्रांतिकरी नहीं बन जाते।
अगर बिहार में चुनाव नहीं हो रहे होते, तो भी मैं आप लोगों की क्रांतिधर्मिता पर संदेह न करता शायद, लेकिन जिस तरह से दादरी में पहले एक घटना कराई गई, फिर उसे ज़बर्दस्ती हिन्दू-मुस्लिम का रंग दिया गया, और अब आप लोगों के शिगूफे... इससे साफ़ ज़ाहिर है कि दोनों तरफ़ के रणनीतिकार वे सारे हथकंडे अपना लेना चाहते हैं, जो यह चुनाव उन्हें जिता सके और आगे भी रोटियां सेंकने के लिए सांप्रदायिक चूल्हे सुलगा सके।
एक विनायक सेन की रिहाई के लिए दुनिया भर के नोबेल विजेता एकजुट हुए थे। हम भी हैरान थे कि जिसे देश में ही कोई नहीं जानता, दुनिया भर में उसके लिए इतना समर्थन कहां से आया? ...और अब दादरी कांड को हथियार बनाकर आप अकादमी विजेता एकजुट हुए हैं। न नोबेल विजेता इस देश के किसानों की आत्महत्या रोकने के लिए आए थे, न आप आए।
ऐसा लगता है कि नेताओं की तरह लेखक भी जनता को उल्लू ही समझते हैं!

बुरे फंसे हो मुस्लिम भाई। आगे कातिल, पीछे कसाई।

(15 अक्टूबर 2015)
इस देश में मुसलमानों की स्थिति सचमुच विचित्र है। बिके हुए बुद्धिजीवियों की फ़ौज चाहती है कि वह छाती में छुरा भोंकने वालों से बचकर पीठ में छुरा घोंपने वालों की गोद में बैठ जाए, क्योंकि उनकी परिभाषा में छाती में छुरा घोंपने वाले को सांप्रदायिक और पीठ में छुरा घोंपने वाले को धर्म-निरपेक्ष कहा जाता है।
विडम्बना देखिए कि बिहार में बीजेपी को वे वोट दे नहीं सकते, इसलिए उस लालू-नीतीश को वोट देने के लिए मजबूर हैं, जो 25 साल से सत्ता में हैं, लेकिन उन्हें डर, असुरक्षा और पिछड़ेपन के सिवा दिया कुछ नहीं। बिहार के मुसलमान, खासकर सीमांचल के मुसलमान भारत के सबसे वंचित और पिछड़े मुसलमान हैं।
आजकल हज़ार किलोमीटर दूर दादरी में भीड़ द्वारा एक की हत्या से वे आहत हैं, लेकिन अपने बगल में फारबिसगंज में चार साल पहले नीतीश सरकार द्वारा चार मुसलमानों की उस बर्बर हत्या को भूलने के लिए विवश हैं, जिसमें एक गर्भवती औरत और पेट में पल रहे उसके 8 महीने के बच्चे तक को गोली मार दी गयी थी। सात साल के बच्चे को भी मारा गया। इतना ही नहीं, एक अधमरे व्यक्ति के शरीर को पुलिस तब तक बूटों से रौंदती रही थी, जब तक कि वह मर नहीं गया था। उन परिवारों को तो उतना भी इन्साफ नहीं मिला, जितना अख़लाक़ के परिवार को मिला।
उनकी इस विवशता पर तो बस यही कह सकता हूँ-
बुरे फंसे हो मुस्लिम भाई।
आगे कातिल, पीछे कसाई।

फारबिसगंज नरसंहार करके भी सेक्युलर-शिरोमणि बने हुए हैं नीतीश बाबू!

(16 अक्टूबर 2015)
"सत्य नहीं होता सुपाच्य, किंतु यही वाच्य।" इसी सूत्र पर कायम रहते हुए जब सत्य को क्रूड फॉर्म में लोगों के सामने रख देता हूं, तो कइयों को अखर जाता है। कहते हैं कि सेक्युलरिज़्म की लड़ाई कमज़ोर हो रही है। लेकिन सच्चाई यह है कि सेक्युलरिज्म इस देश की राजनीति में कहीं है ही नहीं। हाँ, सेक्यूलरिज्म के नाम पर बहुत सी दुकानें ज़रूर खुल गयी हैं।
अब ज़रा इस वीडियो को देखिए और तय कीजिए कि उत्तर प्रदेश के दादरी में अख़लाक़ के साथ अधिक बुरा हुआ या बिहार के फॉरबिसगंज में इन लोगों के साथ अधिक बुरा हुआ-https://www.youtube.com/watch?v=Ncn2akDul9w
मुझे तो लगता है दोनों के साथ बहुत बुरा हुआ। बस फ़र्क़ इतना है कि अख़लाक़ को कॉम्युनल भीड़ ने मारा और फॉरबिसगंज के इन ग़रीब मुसलमानों को नीतीश कुमार की सुपर-सेक्युलर सरकार ने मारा। और "मारा तो मारा"... बिके हुए बुद्धिजीवियों की भावना अक्सर यही रहती है, क्योंकि "सेक्युलर हिंसा हिंसा न भवति। सेक्युलर दंगा दंगा न भवति। सेक्युलर अत्याचार अत्याचार न भवति।"
बताया जाता है कि इस सरकारी नरसंहार के पीछे बीजेपी के एक विधान-पार्षद अशोक अग्रवाल थे, जो तत्कालीन उप-मुख्यमंत्री सुशील मोदी के चहेते थे। और सुशील मोदी जी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के चहेते थे। इतने चहेते कि उन्होंने ख़ुद ख़ुलासा किया है कि इन्हीं छोटे मोदी के कहने पर उन्होंने बड़े मोदी का भोज कैंसिल कर दिया था।
अब "सेक्युलरिज़्म" के नाम पर नीतीश बाबू को सपोर्ट कीजिए। क्या हुआ जो 17 साल तक "कॉम्युनल" भाजपा की गोद में बैठकर उन्होंने सत्ता की मलाई चाटी! क्या हुआ जो बाबरी-विध्वंस के उन्हीं आरोपी लालकृष्ण आडवाणी की चरण-वंदना से भी उन्हें परहेज नहीं था, जिन्हें उनके आजकल के शागिर्द लालू यादव की सरकार ने गिरफ़्तार कर लिया था? क्या हुआ जो गुजरात दंगे के ठीक बाद न सिर्फ़ वे वाजपेयी सरकार में मंत्री बने रहे, बल्कि नरेंद्र मोदी की तारीफ़ भी करते रहे और उनसे गुजरात से बाहर निकलकर देश का नेतृत्व करने की अपील भी करते रहे? देखिए- https://www.youtube.com/watch?v=1-Pq778iKMk(शुरु में 30 सेकेंड और 9 मिनट के बाद)
अगर इस देश में सेक्युलरिज़्म-विमर्श इसी तरह चलता रहा, तो गारंटी है कि न कभी दंगे रुकेंगे, न कभी हिन्दुओं-मुसलमानों का बंटवारा ख़त्म होगा। न मुसलमानों में सुरक्षा की भावना आएगी, न हिन्दुओं की यह टीस ख़त्म होगी कि मुस्लिम तुष्टीकरण होता है।
हमारे मुसलमान भाई-बहन अगर ऐसे-ऐसे सेक्युलरों के चक्कर में फंसे रहे, तो ईश्वर, अल्लाह और ब्रह्मांड के सारे ख़ुदा एक साथ मिलकर भी उनका भला नहीं कर सकते। सॉरी।

इस राष्ट्र में कम से कम आप तो धृतराष्ट्र मत बनिए, हे चुनाव आयोग !

(18 अक्टूबर 2015)
अगर चुनाव लोकतंत्र का "पर्व" है, तो इसे सभी समुदायों के बीच प्रेम और सद्भाव को बढ़ावा देते हुए आम जन से जुड़े उन मुद्दों के इर्द-गिर्द मनाया जाना चाहिए, जो नौजवानों और जेननेक्स्ट की भलाई के लिए ज़रूरी हों, लेकिन अगर चुनाव भी एक किस्म का "दंगा" है, तो उसे इसी तरह लड़ा जाना चाहिए, जैसे इन दिनों बिहार में लड़ा जा रहा है और बिहार से बाहर बैठे लोगों द्वारा लड़वाया जा रहा है।
हे चुनाव आयोग, अगर आप चुनाव को सचमुच एक "पर्व" की तरह कंडक्ट करा सकते हैं, तब तो ठीक, वरना अगर एक "दंगे" की तरह ही संपन्न होने के लिए छोड़ देना है, तो ये पांच-पांच चरणों वाले महीने भर लंबे "स्वतंत्र" और "निष्पक्ष" चुनाव का ढोंग बंद कर दीजिए। आपके इस महीने भर लंबे ढोंग के चक्कर में नफ़रत और उन्माद के व्यापारियों को भी काफी लंबा वक़्त मिल जाता है, जिससे देश के मन-मस्तिष्क पर काफी बुरा असर पड़ता है।
हे चुनाव आयोग, आपकी आचार संहिता किस काम की, अगर राजनीतिक दल, उम्मीदवार, मीडिया और बुद्धिजीवी उसे खुलेआम ठेंगा दिखाते रहे तो? आपने चुनाव के दौरान जातियों और संप्रदायों के बीच नफ़रत फैलाने के लिए आज तक कितने राजनीतिक दलों की मान्यता रद्द की है, कितने नेताओं को दस-बीस साल के लिए जेल में ठूंस दिया है, कितने चैनलों का लाइसेंस रद्द करवा दिया है और कितने बुद्धिजीवियों को अपनी बौद्धिकता पर लगाम कसने को कहा है?
हे चुनाव आयोग, थोड़ा और खुलकर बोल देता हूं। आप अगर नेताओं को भड़काऊ बयान देने से रोकना चाहते हैं, तो मीडिया को भी तो वे भड़काऊ बयान दिखाने से रोकिए। मीडिया की "स्वतंत्रता" जाए भाड़ में, अगर चुनाव की "स्वतंत्रता" बनाए रखनी है, तो कम से कम चुनाव-काल के लिए तो एक सख्त आचार-संहिता मीडिया के लिए भी बनाइए, जिसका पालन नहीं करने पर उनका भी लाइसेंस रद्द करने का प्रावधान हो।
मीडिया के ज़रिए राजनीतिक दलों का महीनों लंबा यह खेल क्या आपको समझ में नहीं आता है, हे चुनाव आयोग? लोगों के मन-मस्तिष्क में ज़हर घुलता रहे, लोग मुद्दों की बजाय जाति और धर्म के नाम पर वोट दे आएं, चुनाव में भाग लेने वाली पार्टियां और उम्मीदवार संकीर्ण सोच से "स्वतंत्र" हो ही न पाएं और सभी वर्गों-समुदायों के लिए "निष्पक्ष" हो ही न पाएं, तो ऐसे "स्वतंत्र" और "निष्पक्ष" चुनाव का हम क्या करें, हे चुनाव आयोग?
हे चुनाव आयोग, कृपया "स्वतंत्र" और "निष्पक्ष" चुनाव की परिभाषा भी नए सिरे से तय करने का कष्ट करें। अभी आप जिस चुनाव को "स्वतंत्र" और "निष्पक्ष" कहकर अपनी पीठ थपथपा लेते हैं, मेरी समझ से वह "फूट डालो और राज करो" की नीति पर चलने वाले "नव-अंग्रेज़ों" का चुनाव है।

नयनतारा से मुनव्वर : एक डूबते हुए वंश को बचाने के लिए हुए क्रांतिकारी

(19 अक्टूबर 2015)
अब आप इसे सेक्युलरिज़्म की लड़ाई कहें, अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमले के ख़िलाफ़ सघर्ष कहें या बढ़ती असहिष्णुता का विरोध... नयनतारा सहगल से लेकर मुनव्वर राणा तक आते-आते यह साफ़ हो चुका है कि बिहार चुनाव के ठीक बीच लेखकों का “पुरस्कार लौटाओ अभियान” पूर्णतः सियासी है। जिन डिज़र्विंग और नॉन-डिज़र्विंग लेखकों पर अतीत में अहसान किये गए, आज एक डूबते हुए वंश को बचाने और देश में राजनीतिक अस्थिरता पैदा करने के लिए उनका इस्तेमाल किया जा रहा है।
लेखकों की यह एकजुटता ठीक उसी मकसद से पैदा हुई है, जिस मकसद से बिहार में लालू, नीतीश और कांग्रेस इकट्ठा हुए हैं। अभी इस महा-गठबंधन में कम्युनिस्ट पार्टियां शामिल नहीं हैं, लेकिन देर-सबेर उन्हें भी इसमें आना ही है, क्योंकि कांग्रेस के साथ के बिना भारत में वामपंथ की सांस फूलने लगती है। 1975 की इमरजेंसी से लेकर 1996 की रामो-वामो और 2004 की यूपीए सरकार तक यह प्रमाणित है। आज जो लेखक इकट्ठा हुए हैं, वह वास्तव में इन्हीं दलों से जुड़े लेखकों का “महा-गठबंधन” है।
विरोध इस बात का भी नहीं है कि लेखकों का कोई गठबंधन बनता है या वे किसी ख़ास राजनीतिक दल या गठबंधन के लिए काम करते हैं। लोकतंत्र में उन्हें भी किसी दल या गठबंधन का समर्थन या विरोध करने का उतना ही हक़ है, जितना एक आम नागरिक को। समस्या तब होती है, जब आप जनता की आंखों में धूल झोंकने लगते हैं। हिडेन एजेंडा चलाने लगते हैं। जब बड़ी-बड़ी बातों के आवरण में छोटे-छोटे खेल खेलने लगते हैं। हमारे लोकतंत्र में पब्लिक को ठगने वाले पहले से ही बहुत सारे हैं। अब क्या लेखक भी ठगी के इस कारोबार में शामिल हो जाना चाहते हैं?
ढोंग छोड़िए और साफ़ बोलिए न ...कि हम कांग्रेस-लेफ्ट का समर्थन या भाजपा का विरोध करते हैं। ...कि हम बिहार चुनाव में भाजपा को हराना चाहते हैं। ...कि हमें देश में फिर से कांग्रेस की सरकार चाहिए। ...कि हमारी ख्वाहिश है कि एक बार वामपंथियों की अपने दम पर सरकार बने। साफ़-साफ़ बोलिए और बहस छेड़िए। अगर हम भी सहमत हुए तो आपके साथ हो लेंगे। लेकिन एक छिपे हुए एजेंडे के तहत हिन्दुओं-मुसलमानों को आमने-सामने खड़ा कर देना, तिल का ताड़ बनाकर देश को बदनाम करना, लोकतंत्र में जो त्योहार पांच साल बाद आता है, उसे असली मुद्दों से भटका देना- यह क्या है?
यहां स्पष्ट कर दूं कि मेरा विरोध “पुरस्कार लौटाओ अभियान पार्ट-2” से है। इसके बावजूद कि “पुरस्कार लौटाओ अभियान पार्ट-1” भी वामपंथी लेखकों द्वारा ही छेड़ा गया था, हमने उसका समर्थन किया। अगर सचमुच मूर्तिपूजा और अंधविश्वास के ख़िलाफ़ लिखने की वजह से ही कलबुर्गी की हत्या हुई, तो साहित्यकारों का यह फ़र्ज़ था कि वे लोकतांत्रिक तरीके से अपना विरोध दर्ज कराएं। ऐसे में उदय प्रकाश और कुछ कन्नड़ लेखकों ने पुरस्कार लौटाकर प्रतिरोध प्रकट करने का जो तरीका चुना, उसमें तब तक एक गरिमा थी, क्योंकि तब तक सियासत गौण थी और मकसद अहम था।
पार्ट-2 तक आते-आते वही “पुरस्कार लौटाओ अभियान” एक इनडीसेंट मूवमेंट में तब्दील हो गया, क्योंकि इसमें सियासत हावी है और मकसद संदिग्ध है। नयनतारा सहगल के कूदते ही यह अभियान कलंकित हो गया और साफ़ झलकने लगा कि बिहार चुनाव के बीच में दादरी कांड के बहाने एंटी-बीजेपी पार्टियां इन लेखकों को वोटों के ध्रुवीकरण के लिए इस्तेमाल कर रही हैं। जिन लोगों ने दादरी करवाई- वे भी सांप्रदायिक हैं। जिन लोगों ने राई का पहाड़ बनाया- वे भी सांप्रदायिक हैं। दोनों पक्षों ने जबरन इसे हिन्दू-मुस्लिम रंग दिया और देश के लहू में नफ़रत का इंजेक्शन लगाने की कोशिश की। दुर्भाग्य से हमारे लेखक इस घिनौनी सांप्रदायिक राजनीति में नफ़रत के उसी इंजेक्शन का “सीरिंज” बन गए हैं।
नयनतारा सहगल को तो अपना वंश बचाना है। वह मोतीलाल नेहरू की अपनी नातिन हैं, जवाहर लाल नेहरू की अपनी भांजी हैं, इंदिरा गांधी की अपनी फुफेरी बहन हैं, राजीव गांधी/सोनिया गांधी की अपनी फुफेरी मौसी हैं, राहुल गांधी/प्रियंका गांधी की अपनी फुफेरी दादी हैं। रिश्ता इतना नज़दीकी है। पोते (राहुल) और पतोहू (सोनिया) के राजनीतिक भविष्य पर संकट है। वंश का अपील समाप्त हो गया है। आख़िर कुछ तो करना होगा। मुमकिन है सोनिया, राहुल, प्रियंका, वाड्रा से उनकी बात हुई हो। क्या करना है- इसपर चर्चा हुई हो। और उस चर्चा में जो तय हुआ हो, वही नयनतारा मैडम ने किया है।
नयनतारा मैडम की संवेदनशीलता और क्रांतिकारी तेवरों के बारे में क्या बात करें? 1984 में, जब भतीजे राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बनते ही सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के नेताओं ने खड़े होकर दिल्ली में 3000 सिखों की हत्या करवा दी, तब उन्हें कुछ दिखाई नहीं दिया था। राजीव गांधी ने पीड़ितों को इंसाफ़ देने की बजाय जले पर नमक छिड़कते हुए कहा कि “बड़ा पेड़ गिरता है, तो धरती हिलती ही है।“ मोदी की चुप्पी पर सवाल खड़े कीजिए, लेकिन बताइए कि भारत के प्रधानमंत्रियों के इतिहास में इससे ज़्यादा घृणित, आपराधिक और दंगाई मानसिकता वाला हत्यारा बयान आज तक दूसरे किस प्रधानमंत्री ने दिया? भतीजे ने पीएम बनने के दूसरे ही महीने दिसंबर 1984 में भोपाल गैस कांड में हज़ारों हिन्दुस्तानियों की मौत के ज़िम्मेदार अमेरिकी उद्योगपति वारेन एंडरसन को रातों-रात भगा दिया। लेकिन मैडम ने भतीजे की सरकार से साहित्य अकादमी पुरस्कार ले ही लिया।
अब 30 साल बाद, दादरी में एक व्यक्ति की हत्या पर मैडम का ज़मीर कोमा से निकल आया है। अगर आज भी देश में सोनिया-राहुल की सरकार होती, तो यह तय है कि दिल्ली और भोपाल की तरह अगर कहीं हज़ारों-लाखों लोगों की हत्या भी हो जाती, तो उनकी क्रांतिकारी चेतना को ऐसे पंख नहीं लगते। बहरहाल, जब “खानदानी” लेखिका नयनतारा सहगल ने पुरस्कार लौटा दिया, तो “खानदान” के “कद्रदानों” के लिए तो जुलूस बांधकर निकलना बनता ही था।
मुझे इस बात की पक्की जानकारी है कि कुछ लोगों ने ज़रूर पब्लिसिटी के चक्कर में स्वेच्छा से पुरस्कार लौटाए हैं, लेकिन कई लोगों पर दबाव बनाया गया, अहसानों का मोल चुकाने को कहा गया, लेखक-एकता और लड़ाई का वास्ता दिया गया। बिरादरी से बहिष्कृत होने के डर से... अछूत घोषित कर दिये जाने के डर से भी कइयों ने पुरस्कार लौटाए हैं। मुनव्वर राणा इन्हीं में से एक हैं। “सत्ता इनके शहर रायबरेली की नालियों से बहती हुई दिल्ली पहुंचती है।“ अच्छे शायर हैं, लेकिन सोनिया की चापलूसी में इन्होंने जो कविता लिखी है, उसे पढ़कर किसी भी स्वाभिमानी लेखक का सिर शर्म से झुक जाएगा।
यानी, नयनतारा से लेकर मुनव्वर तक... लेखकों का सोनिया-राहुल कनेक्शन स्वतः स्पष्ट है। बीच में जिन लेखकों का लेफ्ट कनेक्शन है, उन्हें इन कांग्रेसी लेखकों से कनेक्ट होने में इसलिए परेशानी नहीं हुई, क्योंकि कांग्रेस और लेफ्ट पार्टी के बीच एक बार फिर से अंदरूनी कनेक्शन स्थापित हो चुका है और अगर बिहार चुनाव में अपेक्षित रिजल्ट मिला, तो इस कनेक्शन का खुला एलान भी होगा। इन सबका कहना है कि देश में असहिष्णुता बहुत बढ़ गई है और अभिव्यक्ति की आज़ादी को कुचला जा रहा है, लेकिन इतिहास देखेंगे तो समझ आएगा कि मोदी के मंसूबे चाहे जो हों, लेकिन इन आरोपों की कसौटी पर नेहरू-गांधी खानदान के “हाथियों” के सामने अभी वे “चींटी” समान हैं।
देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने तो देश के पहले राष्ट्रपति और पहले नागरिक राजेंद्र प्रसाद की ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हड़प ली थी और कई बार ऐसा हुआ, जब रेडियो से उनका भाषण प्रसारित ही नहीं होने दिया। तीसरी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की 1975 की इमरजेंसी कु-कथा को कौन नहीं जानता। छठे प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने 1986 में शाहबानो मामले में करोड़ों मुस्लिम महिलाओं के हक़ और देश में न्याय की सुप्रीम व्यवस्था को कुचलते हुए सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला पलट दिया था। फिर 1988 में डेफेमेशन बिल लाकर प्रेस की आज़ादी छीनने और इमरजेंसी पार्ट-2 लाने की कोशिश की थी।
कहना नहीं होगा कि लेखकों का यह आंदोलन साहित्य और साहित्यकारों की गरिमा को गिराने वाला आंदोलन है। जब साहित्य सियासत की गोद में बैठ जाएगा और सियासी मास्टरमाइंड अपनी बंदूकें चलाने के लिए साहित्यकारों के कंधों का इस्तेमाल करेंगे, तो यह साहित्य और समाज दोनों के लिए बुरा होगा। आज मीडिया से लोगों का भरोसा उठता जा रहा है। कल साहित्य से भी उठ जाएगा। साहित्य और साहित्यकारों की विश्वसनीयता बनी रहनी चाहिए। अगर कल को भाजपा-आरएसएस के हिडेन एजेंडे पर चलने वाले लेखक भी ऐसी गिरोहबाज़ी करेंगे, तो हमें उनका भी विरोध करना पड़ेगा।

शिव सेना, राम सेना, हिन्दू सेना टाइप संगठनों की नहीं है ज़रुरत

(20 अक्टूबर 2015)
कालिख लगाने वालों को क्या इतनी भी अक्ल नहीं कि जिसे वह कालिख लगाते हैं, उसका चेहरा चमक जाता है और सारी कालिख उन्हीं के चेहरे पर आ लगती है?
वैसे मैंने सुना है कि आजकल बहुत से लोग पैसे देकर अपने मुंह पर कालिख लगवाते हैं, इसीलिए जब उनके मुंह पर कालिख लगा दी जाती है तब वे बहुत खुश होते हैं और जब तक उनका मीडिया-व्यापार पूरा नहीं हो जाता, तब तक कालिख नहीं धोते।
बहरहाल, ये शिव सेना, राम सेना और हिन्दू सेना टाइप संगठनों की देश को कोई ज़रुरत नहीं। देश में एक ही सेना काफी है और वो है- भारतीय सेना।

राजनीति में 'कुत्ता' कहां से ले आते हैं बीजेपी नेता?

(22 अक्टूबर 2015)

इंसानों के ज़िक्र में बार-बार कुत्ते का उदाहरण क्यों देते हैं बीजेपी के नेता? ऐसे ही बयान के लिए एक बार खुद नरेंद्र मोदी भी घिर चुके हैं। गुजरात दंगे से जुड़े एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा था कि अगर कुत्ते का पिल्ला भी गाड़ी के नीचे आ जाता है तो दुःख तो होता है। इसपर बहुत बवाल हुआ था।
लगता है वीके सिंह ने उस घटना से कोई सबक नहीं लिया। हो सकता है उनकी नीयत में खोट न हो, लेकिन मिसाल तो ढंग की देनी चाहिए? जैसे हम कहें कि इतने वफादार तो कुत्ते भी होते हैं कि जिसकी रोटी खाते हैं, उसके पीछे दुम हिलाते हैं, लेकिन नेताजी जिसके वोट से माननीय बनते हैं, उसी को अपमानित करने लगते हैं, तो शायद किसी नेता को अच्छा नहीं लगेगा।

मोदी जी, यह 'दूसरा संप्रदाय' कौन है?

(26 अक्टूबर 2015)
यह साफ़ है कि मोदी को अपनी हिंदुत्व वाली छवि से कोई परहेज नहीं है। बक्सर की सभा में उन्होंने लालू-नीतीश पर दलितों-महादलितों-पिछड़ों-अतिपिछड़ों के आरक्षण में से 5-5% की कटौती करके "दूसरे संप्रदाय" को देने की साज़िश करने का आरोप लगाते हुए कहा कि चूंकि संविधान-निर्माताओं ने धर्म के आधार पर आरक्षण को मंजूरी नहीं दी है, इसलिए मोदी जान लगा देगा, लेकिन लालू-नीतीश की साज़िश को कामयाब नहीं होने देगा।
मेरा ख्याल है कि पीएम बनने के बाद पहली बार मोदी ने ऐसा छाती-ठोंक बयान दिया है। अभी तक बीजेपी आरक्षण पर सफाई की मुद्रा में थी, लेकिन दो चरणों के चुनाव के बाद वह अचानक आक्रामक हो गई है। हालांकि यह स्पष्ट है कि संविधान-निर्माताओं ने धर्म के आधार पर आरक्षण की व्यवस्था नहीं की है, फिर भी देश के प्रधानमंत्री अगर अपने नागरिकों के लिए 'एक संप्रदाय' और 'दूसरे संप्रदाय' जैसे शब्दों का इस्तेमाल करें, तो इससे अच्छा मैसेज नहीं जाता।
लालू-नीतीश का खेल भी कोई साफ़-सुथरा नहीं है। वे भी 21वीं सदी के दूसरे दशक में बिहार को 20वीं सदी में ले जाने वाली राजनीति कर रहे हैं और चुनाव को अगड़ा-पिछड़ा लड़ाई बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। देखा जाए तो यह बिहार के इतिहास का सबसे गन्दा चुनाव है, जिसमें यूपी और हरियाणा की घटनाएँ तो मुद्दा बना दी गयीं, लेकिन बिहार के अपने मुद्दों को जगह ही नहीं मिली। जाति और संप्रदाय की राजनीति की यही परिणति होती है।

बीफ अगर गो-मांस न हो, तो भी उसपर प्रतिबंध लगना चाहिए

(28 अक्टूबर 2015)
दुनिया का दादा है मनुष्य। रावण, महिषासुर, शैतान और हैवान है मनुष्य। दूसरे जीवों की जीने की आज़ादी छीनकर अपने खाने-पीने की आज़ादी चाहिए मनुष्य को। दूसरे जीवों का संहार करने की आज़ादी चाहता है मनुष्य। इस आज़ादी में ज़रा भी खलल पड़ने से बौखला जाता है मनुष्य। उसमें और भूखे भेड़िये में फिर कोई अंतर नहीं रह जाता है।
ऐसे ही जीव-रक्त-पिपासु, क्रूर, निर्दयी और राक्षसी प्रवृत्ति वाले हैवान मनुष्यों की वजह से आज इस दुनिया में इतनी हिंसा और आतंकवाद है। अगर इनका वश चले तो ये किसी दिन गरीबों के बच्चों को भी मारकर खाने लगेंगे। हर मांसाहारी मनुष्य में एक सुरेन्द्र कोली मौके की ताक में छिपा बैठा है। होने दीजिए दुनिया की आबादी बीस अरब, फिर हमारी अगली पीढियां देखेंगी कि ऐसे ही मांसाहारियों में कितने सुरेन्द्र कोली छिपे बैठे थे। आज वे कमज़ोर पशु-पक्षियों को मारकर खाने के लिए लड़ रहे हैं, कल वे कमज़ोर मनुष्यों को मारकर खाने के लिए भी लड़ेंगे।
आज भी देखिए तो जिनका कलेजा दूसरे जीवों की हत्या करके नहीं काँपता, अमूमन वही लोग धरती पर इंसानों की भी हत्याएं कर रहे हैं। चाहें तो इसपर स्टडी करके देख लें- शाकाहारी अधिक हिंसा कर रहे हैं या माँसाहारी? यानी जब हम खाने-पीने की आज़ादी के नाम पर मांसाहार का समर्थन कर रहे होते हैं, तो वस्तुतः हम हत्यारी प्रवृत्ति और हत्यारों का समर्थन कर रहे होते हैं।
जीव-हत्या के खिलाफ जंग को धार्मिक रंग नहीं दिया जाना चाहिए, न ही इसकी शुरुआत सिर्फ गाय से होनी चाहिए। इसमें गाय के अलावा भैंस और बकरी समेत उन तमाम दुधारू पशुओं को शामिल किया जाना चाहिए, जिनका दूध पीकर हमारे बच्चे बड़े होते हैं। इसलिए बीफ अगर गो-मांस नहीं हो, तो भी उसपर प्रतिबन्ध लगाया जाना चाहिए।
यह दुनिया सिर्फ रक्त-पिपासुओं की नहीं, हम अमन-पसंदों की भी है। सभ्य मनुष्य को धीरे-धीरे मानव-अधिकारों की लड़ाई से जीव-अधिकारों की लड़ाई की तरफ भी बढ़ना चाहिए।
याद रखें, शाकाहार और मांसाहार की बहस वस्तुतः सभ्य और असभ्य मनुष्यता की लड़ाई है। धर्म से इसका कोई संबंध नहीं। धर्म तो दुनिया भर में लोगों को लड़वा-मरवा रहे हैं और हम यहाँ सबकी रक्षा की बात कर रहे हैं।

अब 1984 के दंगाई और नक्सली सिखाएंगे सहिष्णुता का पाठ

(29 अक्टूबर 2015)
चीन में यह भी कम्युनिस्ट ही तय करते हैं कि लोग कितने बच्चे पैदा करें। वहां की कम्युनिस्ट सरकार ने 36 साल बाद अपने नागरिकों को दो बच्चे पैदा करने की इजाज़त दी है। वहां पहले एक ही बच्चा पैदा करने की इजाज़त थी। दंपती दूसरा बच्चा तभी पैदा कर सकते थे, जब पहली संतान लड़की हो।
अगर भारत में कोई सरकार ऐसी पाबंदी लगा दे, तो क्या होगा? सिद्धारमैया जैसे कांग्रेसी मुख्यमंत्री कहेंगे कि "अच्छा... तुम कौन होते हो मुझे एक बच्चे तक रोकने वाले? अब तो मैं कम से कम दस बच्चे पैदा करूंगा... वो भी उम्र की परवाह किये बिना।"
आख़िर बीफ पर उनका बयान ऐसा ही है न... "अब तक तो नहीं खाता था, लेकिन अब ज़रूर खाऊंगा।" हरियाणा के मुख्यमंत्री खट्टर ने जो कहा, उसकी निंदा तो हो चुकी, लेकिन कर्नाटक के मुख्यमंत्री के बयान पर सोनिया गांधी की चुप्पी क्या बताती है? अब कांग्रेस पार्टी क्या देश और राज्यों में क्रिया और प्रतिक्रिया का सिद्धांंत लागू करना चाहती है?
राजीव गांधी ने तो दिल्ली सिख-संहार के बाद कहा ही था कि "बड़ा पेड़ गिरता है, तो धरती हिलती ही है।" अब दादरी कांड के बाद जब तक पूरे देश को दंगे की आग में नहीं झोंंक दिया जाए, तब तक कांग्रेस पार्टी के सेक्युलर लोगों को चैन कैसे आएगा?
जिन लोगों ने धर्म के आधार पर देश का बंटवारा कबूल किया और आज़ाद भारत में हज़ारों दंगों में लाखों लोगों को मारा, विस्थापित किया और देश में इमरजेंसी लगाई, वे भी आज सरकार बदलते ही बगुला-भगत बन गए हैं।
अभी तो सिर्फ़ कांग्रेसी व वामपंथी लेखक, कलाकार, इतिहासकार और वैज्ञानिक ही पुरस्कार लौटा रहे हैं। बहुत जल्द वे लोग भी अपने बुढ़ापे में असहिष्णुता के ख़िलाफ़ आंदोलन करने निकलने वाले हैं, जिन्होंने जवानी के दिनों में दिल्ली में 3000 सिखों को मार डाला था।
हरिशंकर परसाई ने बिल्कुल सही कहा था कि "जन तीन तरह के होते हैं- सज्जन, दुर्जन और कांग्रेसजन।" कम्युनिस्टों के लिए उन्होंने कुछ लिखा था कि नहीं, पता नहीं। लेकिन अब लगता है कि फ़र्ज़ी सेक्युलरों और नक्सलियों से हमें सहिष्णुता का पाठ सीखना होगा।
आज देश में इतना जो जातिवाद और संप्रदायवाद है, वह कांग्रेस और कम्युनिस्टों की ही देन है। बीजेपी और आरएसएस तो बस सिद्धारमैया जैसे जड़ और प्रतिक्रियावादी लोगों के समूह का नाम है।