(19 जनवरी 2016)
रोहित के साथ अगर कुछ ग़लत हुआ, तो उसकी पड़ताल करो। गुनहगारों को सज़ा दो। लेकिन प्लीज़ उसे हीरो मत बनाओ। क्या हम अपने बच्चों और नौजवानों को यह बताना चाहते हैं कि कोई आत्महत्या करके भी हीरो बन सकता है?
अब तक तो हम यही समझते रहे हैं कि आत्महत्या कायर, पलायनवादी, अवसादग्रस्त, हताश और दृष्टिविहीन लोगों का काम है। क्या इस बार हम यह स्थापित करना चाहते हैं कि आत्महत्या करके भी कोई योद्धा का खिताब पा सकता है?
सियासी चालों और असहिष्णुता का हौवा खड़ा करने में हम इतने दिग्भ्रमित न हो जाएं कि पूरी पीढ़ी को ही आत्महत्या के लिए उकसाने लग जाएं। दुनिया में 740 करोड़ लोग हैं और सबकी ज़िंदगी में कोई न कोई विषाद है। क्या हम उन्हें आत्महत्या करना सिखाएं?
अभी तो मैं इस विवाद में जाना ही नहीं चाहता कि रोहित वेमुला को याकूब मेनन से किस बात की सहानुभूति थी या वह यूनिवर्सिटी में बीफ पार्टी के आयोजकों का साथ क्यों दे रहा था? अभी मैं इतना जानता हूं कि मैं उसके साथ नहीं हूं और इसलिए नहीं हूं, क्योंकि उसने आत्महत्या की।
आत्महत्या करना आज भी इस देश में गैरकानूनी है। उसने ऐसा करके न सिर्फ़ एक ग़ैरकानूनी काम किया, बल्कि नौजवानों के सामने ग़लत नज़ीर भी पेश की। अगर वह लड़ता तो हम सोचते कि उसके मुद्दे सही हैं या ग़लत हैं। अगर वह लड़ते-लड़ते मरता, तो उसके लिए प्रेम और श्रद्धा भी रखते।
लेकिन उसने लड़ना छोड़कर मरने का रास्ता चुना। फिर उससे कैसी सहानुभूति? इतना ही नहीं, वह तो इतना बड़ा कायर निकला कि आत्महत्या कर ली, लेकिन एक मुद्दा नहीं उठाया, एक आदमी का नाम नहीं लिया, किसी एक की ज़िम्मेदारी नहीं डाली।
सियासत करने वाले रोहित वेमुला को हीरो, योद्धा और पीड़ित-प्रताड़ित वगैरह घोषित कर सकते हैं, लेकिन मैं जितना समझ पा रहा हूं, वह एक कमज़ोर, कायर, पलायनवादी, दृष्टिरहित, हताश, अवसादग्रस्त और बीमार लड़का था, जो वैचारिक भेड़चाल का शिकार हो गया और जिसे काउंसिलिंग की ज़रूरत थी।
बहुत मुमकिन है कि उसे आत्महत्या के लिए उकसाने वाले उसके साथीगण ही हों। इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि पूरे मामले की निष्पक्ष न्यायिक जांच हो। इस तरह के संवेदनशील मामलों में क्या हमारा सिस्टम इतना भी नहीं कर सकता कि त्वरित जांच और इंसाफ़ हो जाया करे और तब तक किसी को भी राजनीतिक रोटियां सेंकने की इजाज़त न दी जाए।
एक बात और। अगर राम के नाम पर बनी राम-सेना के लोग रावण-सेना की तरह और शिव के नाम पर बनी शिव-सेना के लोग प्रेत-सेना की तरह व्यवहार कर सकते है, तो ज़रूरी नहीं कि अंबेडकर के नाम पर बने सभी संगठनों के तमाम लोग भी एकलव्य ही हों।
बहरहाल, अब इस देश में ऐसा माहौल बन गया है कि पहले हर आदमी की जाति देखी जाएगी, धर्म देखा जाएगा, और अगर यह सियासी रोटियां सेंकने के लिए अनुकूल हुआ, तो उसके सही का विरोध और ग़लत का समर्थन भी किया जा सकता है।
यह कड़वा है और अपच है। दुर्भाग्यपूर्ण है, पर सच है।