Monday, June 20, 2016

अभिरंजन कुमार को प्रतिष्ठित नारद सम्मान



अभिरंजन कुमार को सम्मानित करते श्री अरुण जेटली
नई दिल्ली। 20 मई 2016. 

जाने-माने कवि और पत्रकार अभिरंजन कुमार को पत्रकारिता जगत में उल्लेखनीय योगदान के लिए केंद्रीय वित्त और सूचना प्रसारण मंत्री अरुण जेटली ने प्रतिष्ठित नारद सम्मान से सम्मानित किया। यह सम्मान उन्हें आदि पत्रकार देवर्षि नारद की जयंती के मौके पर इन्द्रप्रस्थ विश्व संवाद केन्द्र द्वारा कॉन्स्टीट्यूशन क्लब के स्पीकर हॉल में आयोजित पत्रकार सम्मान समारोह में दिया गया।

अभिरंजन कई राष्ट्रीय और क्षेत्रीय समाचार चैनलों के संपादकीय प्रमुख रह चुके हैं। साथ ही, उनके तीन कविता संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें बचपन की पचपन कविताएं और उखड़े हुए पौधे का बयान ख़ासे चर्चित रहे हैं। अभिरंजन ने सम्मान में मिली 11 हज़ार रुपये की राशि प्रधानमंत्री सूखा राहत कोष में दान कर दी।


कार्यक्रम में सात अन्य पत्रकारों को अलग-अलग श्रेणियों में उनके योगदान के लिए सम्मानित किया गया। इनमें श्याम खोसला, मनमोहन शर्मा और डॉ. शंकर शरण प्रमुख थे। श्रेष्ठ छायांकन के लिए उत्कृष्ट छायाकार नारद सम्मान स्व. श्री रवि कन्नौजिया को मरणोपरांत प्रदान किया गया।

कैराना ही नहीं, दादरी भी कानून-व्यवस्था का ही मामला था जहांपनाह!

(18 जून 2016)

उत्तर प्रदेश के कैराना इलाके से ख़ास समुदाय के लोगों के पलायन पर मीडिया में कई दिनों से तरह-तरह की रिपोर्टें आ रही हैं, लेकिन हम चुप रहे। चुप इसलिए रहे कि देख लेते हैं मामला क्या है! "कौवा कान लेकर भागा" जैसी स्थिति कम से कम समाज के सोचने-समझने वाले लोगों को पैदा नहीं करनी चाहिए।

यह अलग बात है कि जुगाड़-पूर्वक साहित्य अकादमी के विभिन्न पुरस्कार हथिया लेने वाले कम्युनिस्ट और कांग्रेसी लेखकों ने दादरी कांड के बाद सोचने-समझने में अपना समय तनिक भी बर्बाद नहीं किया और बिल्कुल दंगाइयों की तरह व्यवहार किया। उनके सामने तो बस सियासी आकाओं से मिला एक ही एजेंडा था कि बिहार चुनाव में फ़ायदे के लिए कैसे भी इस मामले को सांप्रदायिक रंग देकर तूल देना है।

आज जिस तरह से कैराना से हुए पलायन को कानून-व्यवस्था का मुद्दा बताकर देश के मीडिया और बुद्धिजीवियों ने ज़िम्मेदारी का परिचय दिया है, अगर दादरी कांड के बाद भी इसी ज़िम्मेदारी से काम लिया गया होता, तो आज हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच एक दीवार-सी खड़ी नहीं हो गई होती। नफ़रत पल भर में पैदा की जा सकती है, लेकिन सद्भावना कायम करने में सालों-साल लग जाते हैं।

हमने तब भी बार-बार यही कहा था कि आख़िर हिंसा की कौन-सी ऐसी घटना है, जिससे कानून-व्यवस्था के दायरे में नहीं निपटा जा सकता है? अगर कहीं सांप्रदायिक हिंसा भी होती है, तो वास्तव में वह कानून-व्यवस्था के ही फेल होने का मामला होती है। और ऐसी हिंसा दोबारा न होने पाए, इसके लिए भी कानून-व्यवस्था को ही चाक-चौबंद करने की ज़रूरत होती है।

जातिवादी और सांप्रदायिक नज़रिए से तो अक्सर घटनाओं को जातीय और सांप्रदायिक रंग दिया जा सकता है, क्योंकि अपराधी भी किसी न किसी जाति या मजहब से तो ताल्लुक रखते ही हैं। और तो और, अपराधियों को भी यही सूट करता है कि आप घटनाओं को जातीय और सांप्रदायिक रंग दें, ताकि उन्हें अपनी बिरादरी के लोगों की सहानुभूति प्राप्त हो सके।

आपको याद होगा कि क्रिकेटर अजहरुद्दीन और अभिनेता सलमान ख़ान से लेकर जेएनयू देशद्रोह कांड के आरोपी उमर ख़ालिद तक जब किसी मामले में फंसते हैं, तो अचानक उन्हें अपनी जातीय और सांप्रदायिक पहचान याद आ जाती है। उनका फौरी बयान यही होता है कि अमुक जाति या संप्रदाय का होने के कारण उन्हें फंसाया जा रहा है। यानी जब भी आप जाति और संप्रदाय को किसी घटना के बीच में लाते हैं, तो वस्तुतः अपराधियों की ही मदद कर रहे होते हैं।

आज देश में जितने भी हिस्ट्रीशीटर अपराधी संसद और विधानसभाओं में सुशोभित हो रहे हैं, वे सभी अपनी-अपनी जातियों और संप्रदायों के लोगों की भावनाओं का दोहन करके ही वहां पहुंच पाए हैं। हम और आप अपनी ग़ैर-ज़िम्मेदाराना बातों से चाहे-अनचाहे उनके एजेंडे को आगे बढ़ाने में सहायक बनते हैं और फिर एक तरफ़ इस बात को लेकर कुढ़ते भी रहते हैं कि सियासत में अब शरीफ़ लोगों की जगह नहीं और दूसरी तरफ़ जनता के विवेक पर भी सवाल खड़े करते हैं।

कैराना की घटना से साफ़ है कि अधिकांश अपराधी ख़ास समुदाय के हैं और पलायन करने वाले अधिकांश पीड़ित दूसरे समुदाय के। इसलिए बहुत आसान था, यह कह देना कि एक समुदाय के आतंक से दूसरे समुदाय के लोग भाग रहे हैं और एक सियासी धड़े के द्वारा वास्तव में कहा भी यही गया। लेकिन जब मीडिया और बुद्धिजीवियों ने इस थ्योरी का विरोध किया, तो वे अपने रुख में बदलाव लाने को मजबूर हुए और उन्हें मानना पड़ा कि मामला सांप्रदायिक नहीं, बल्कि कानून-व्यवस्था का है। यह ज़िम्मेदारी और समझदारी भरी रिपोर्टिंग की जीत है।

लेकिन दादरी की घटना के बाद ऐसी ज़िम्मेदारी और समझदारी नहीं दिखाई गई। बार-बार हिन्दू, मुसलमान और गो-मांस को लपेटा गया। मीडिया और बुद्धिजीवियों ने देश के सांप्रदायिक सद्भाव पर दुधारी तलवार चलाई। एक तरफ़, बार-बार यह कहकर कि हिन्दुओं की भीड़ ने एक मुसलमान को मार डाला, हिन्दुओं के प्रति मुसलमानों की नफ़रत को भड़काया। दूसरी तरफ़, गो-मांस के मुद्दे पर हिन्दुओं की भावनाओँ की लगातार अनदेखी करके मुसलमानों के प्रति हिन्दुओं की नफ़रत को भड़काया।

याद कीजिए, दादरी कांड के बाद एक कुटिल कांग्रेसी मुख्यमंत्री ने हिन्दुओं को चिढ़ाते हुए कहा कि अब तो मैं ज़रूर गो-मांस खाऊंगा। दूसरी तरफ़, मां की कोख से ही क्रांतिकारी पैदा होने वाले कम्युनिस्टों ने सड़क पर गो-मांस खाते हुए जुलूस निकाला। ऐसी और भी कई घटनाएं हुईं, जिनसे लगा कि देश के तमाम पागलखानों की दीवारें तोड़कर सारे पगलाए हुए लोग मीडिया, सियासत और साहित्य में घुस गए हैं।

जबकि, जैसे हर घटना को कानून-व्यवस्था के दायरे में डील किया जा सकता है, वैसे ही दादरी की घटना को भी किया जा सकता था और किया गया। उस घटना को हिन्दू-मुस्लिम रंग देने की चाहे जितनी भी कोशिशें हुईं, लेकिन न तो इस्लाम की रक्षा के लिए अल्लाह ने किसी पैगंबर को भेजा, न हिन्दुत्व के उद्धार के लिए किसी देवी या देवता का अवतरण हुआ। हालात को संभालने के लिए कानून-व्यवस्था संभालने वाली एजेंसियां ही बीच में आईँ। न कुरान की आयतें आईं, न पुराण के श्लोक आए। आईं आईपीसी की वह धाराएं ही, जिनके मुताबिक संदिग्धों को पकड़कर दोषियों को सज़ा दिलाने की कार्रवाई शुरू की जा सकी।

आज अगर बाबा कबीरदास जीवित होते, तो हिन्दुओं और मुसलमानों को लड़ाने की ताक में लगे रहने वाले इन सारे पुरस्कार-प्राप्त लेखकों का मुंह नोंच लेते। उनकी वे ऐसी धुलाई करते कि ये लोग चूहे की तरह किसी बिल में घुस जाते और जनता को भी यह अहसास हो जाता कि जिनमें संवेदना नहीं, वे साहित्यकार कैसे? जिनमें विवेक नहीं, वे बुद्धिजीवी किस बात के?

आज अगर बाबा कबीरदास होते, तो निश्चित रूप से यही कहते-
“न कुरान, न पुराण
याद रखो देश का संविधान।
न ईश्वर, न अल्लाह
इंसानियत सबसे ऊपर है जहांपनाह!”

आख़िर उन्होंने तो कहा ही था न-
“मंदिर तोड़ो, मस्जिद तोड़ो, यह सब खेल मज़ा का है
पर किसी का दिल मत तोड़ो, यह तो वास ख़ुदा का है।“

राहुल बाबा फिर विदेश चले गए हैं (कविता)















राहुल बाबा फिर विदेश चले गए हैं
किस देश गए हैं, बताकर नहीं गए, वरना ज़रूर बताता
उनकी ग़ैर-मौजूदगी में बड़ी अकेली पड़ जाती हैं उनकी माता!

कितने दिन के लिए गए हैं, यह भी तो उन्होंने बताया नहीं
क्या करने गए हैं, इस बारे में भी कुछ जताया नहीं
जून की इन सुलगती गर्मियों में पार्टी के लोग हो गए बिना छाता!

मुझे चिंता हो रही है कांग्रेस की, जिसे सर्जरी की ज़रूरत है
और सर्जरी की डेट टलती ही जा रही है
130 साल पुरानी काया अब गलती ही जा रही है
पर जो सर्जन है, वही फिर रहा है क्यों छिपता-छिपाता?

राहुल बाबा का जी अगर है ज़िम्मेदारी से घबराता
तो प्रियंका बेबी को ही हम बुला लेते
उनके मैजिक की माया में साल दो साल तो ख़ुद को भुला लेते
पर इस अनिश्चय की स्थिति में तो हमें कुछ भी नहीं है बुझाता!

दिग्गी से पिग्गी से, मणि से शनि से भी तो काम नहीं चलता
क्या करें, कांग्रेस में गांधी-नेहरू के सिवा कोई नाम नहीं चलता
ये कैसे कठिन समय में हमें डाल दिया, हे दाता!

पहले वाले दिन कितने अच्छे थे।
एक मम्मी थी और हम ढेर सारे बच्चे थे।
न कोई बही थी, न था कोई खाता।
जो जी में आता, वही था खा जाता।

(20 जून 2016)