Monday, June 20, 2016

अभिरंजन कुमार को प्रतिष्ठित नारद सम्मान



अभिरंजन कुमार को सम्मानित करते श्री अरुण जेटली
नई दिल्ली। 20 मई 2016. 

जाने-माने कवि और पत्रकार अभिरंजन कुमार को पत्रकारिता जगत में उल्लेखनीय योगदान के लिए केंद्रीय वित्त और सूचना प्रसारण मंत्री अरुण जेटली ने प्रतिष्ठित नारद सम्मान से सम्मानित किया। यह सम्मान उन्हें आदि पत्रकार देवर्षि नारद की जयंती के मौके पर इन्द्रप्रस्थ विश्व संवाद केन्द्र द्वारा कॉन्स्टीट्यूशन क्लब के स्पीकर हॉल में आयोजित पत्रकार सम्मान समारोह में दिया गया।

अभिरंजन कई राष्ट्रीय और क्षेत्रीय समाचार चैनलों के संपादकीय प्रमुख रह चुके हैं। साथ ही, उनके तीन कविता संग्रह भी प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें बचपन की पचपन कविताएं और उखड़े हुए पौधे का बयान ख़ासे चर्चित रहे हैं। अभिरंजन ने सम्मान में मिली 11 हज़ार रुपये की राशि प्रधानमंत्री सूखा राहत कोष में दान कर दी।


कार्यक्रम में सात अन्य पत्रकारों को अलग-अलग श्रेणियों में उनके योगदान के लिए सम्मानित किया गया। इनमें श्याम खोसला, मनमोहन शर्मा और डॉ. शंकर शरण प्रमुख थे। श्रेष्ठ छायांकन के लिए उत्कृष्ट छायाकार नारद सम्मान स्व. श्री रवि कन्नौजिया को मरणोपरांत प्रदान किया गया।

कैराना ही नहीं, दादरी भी कानून-व्यवस्था का ही मामला था जहांपनाह!

(18 जून 2016)

उत्तर प्रदेश के कैराना इलाके से ख़ास समुदाय के लोगों के पलायन पर मीडिया में कई दिनों से तरह-तरह की रिपोर्टें आ रही हैं, लेकिन हम चुप रहे। चुप इसलिए रहे कि देख लेते हैं मामला क्या है! "कौवा कान लेकर भागा" जैसी स्थिति कम से कम समाज के सोचने-समझने वाले लोगों को पैदा नहीं करनी चाहिए।

यह अलग बात है कि जुगाड़-पूर्वक साहित्य अकादमी के विभिन्न पुरस्कार हथिया लेने वाले कम्युनिस्ट और कांग्रेसी लेखकों ने दादरी कांड के बाद सोचने-समझने में अपना समय तनिक भी बर्बाद नहीं किया और बिल्कुल दंगाइयों की तरह व्यवहार किया। उनके सामने तो बस सियासी आकाओं से मिला एक ही एजेंडा था कि बिहार चुनाव में फ़ायदे के लिए कैसे भी इस मामले को सांप्रदायिक रंग देकर तूल देना है।

आज जिस तरह से कैराना से हुए पलायन को कानून-व्यवस्था का मुद्दा बताकर देश के मीडिया और बुद्धिजीवियों ने ज़िम्मेदारी का परिचय दिया है, अगर दादरी कांड के बाद भी इसी ज़िम्मेदारी से काम लिया गया होता, तो आज हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच एक दीवार-सी खड़ी नहीं हो गई होती। नफ़रत पल भर में पैदा की जा सकती है, लेकिन सद्भावना कायम करने में सालों-साल लग जाते हैं।

हमने तब भी बार-बार यही कहा था कि आख़िर हिंसा की कौन-सी ऐसी घटना है, जिससे कानून-व्यवस्था के दायरे में नहीं निपटा जा सकता है? अगर कहीं सांप्रदायिक हिंसा भी होती है, तो वास्तव में वह कानून-व्यवस्था के ही फेल होने का मामला होती है। और ऐसी हिंसा दोबारा न होने पाए, इसके लिए भी कानून-व्यवस्था को ही चाक-चौबंद करने की ज़रूरत होती है।

जातिवादी और सांप्रदायिक नज़रिए से तो अक्सर घटनाओं को जातीय और सांप्रदायिक रंग दिया जा सकता है, क्योंकि अपराधी भी किसी न किसी जाति या मजहब से तो ताल्लुक रखते ही हैं। और तो और, अपराधियों को भी यही सूट करता है कि आप घटनाओं को जातीय और सांप्रदायिक रंग दें, ताकि उन्हें अपनी बिरादरी के लोगों की सहानुभूति प्राप्त हो सके।

आपको याद होगा कि क्रिकेटर अजहरुद्दीन और अभिनेता सलमान ख़ान से लेकर जेएनयू देशद्रोह कांड के आरोपी उमर ख़ालिद तक जब किसी मामले में फंसते हैं, तो अचानक उन्हें अपनी जातीय और सांप्रदायिक पहचान याद आ जाती है। उनका फौरी बयान यही होता है कि अमुक जाति या संप्रदाय का होने के कारण उन्हें फंसाया जा रहा है। यानी जब भी आप जाति और संप्रदाय को किसी घटना के बीच में लाते हैं, तो वस्तुतः अपराधियों की ही मदद कर रहे होते हैं।

आज देश में जितने भी हिस्ट्रीशीटर अपराधी संसद और विधानसभाओं में सुशोभित हो रहे हैं, वे सभी अपनी-अपनी जातियों और संप्रदायों के लोगों की भावनाओं का दोहन करके ही वहां पहुंच पाए हैं। हम और आप अपनी ग़ैर-ज़िम्मेदाराना बातों से चाहे-अनचाहे उनके एजेंडे को आगे बढ़ाने में सहायक बनते हैं और फिर एक तरफ़ इस बात को लेकर कुढ़ते भी रहते हैं कि सियासत में अब शरीफ़ लोगों की जगह नहीं और दूसरी तरफ़ जनता के विवेक पर भी सवाल खड़े करते हैं।

कैराना की घटना से साफ़ है कि अधिकांश अपराधी ख़ास समुदाय के हैं और पलायन करने वाले अधिकांश पीड़ित दूसरे समुदाय के। इसलिए बहुत आसान था, यह कह देना कि एक समुदाय के आतंक से दूसरे समुदाय के लोग भाग रहे हैं और एक सियासी धड़े के द्वारा वास्तव में कहा भी यही गया। लेकिन जब मीडिया और बुद्धिजीवियों ने इस थ्योरी का विरोध किया, तो वे अपने रुख में बदलाव लाने को मजबूर हुए और उन्हें मानना पड़ा कि मामला सांप्रदायिक नहीं, बल्कि कानून-व्यवस्था का है। यह ज़िम्मेदारी और समझदारी भरी रिपोर्टिंग की जीत है।

लेकिन दादरी की घटना के बाद ऐसी ज़िम्मेदारी और समझदारी नहीं दिखाई गई। बार-बार हिन्दू, मुसलमान और गो-मांस को लपेटा गया। मीडिया और बुद्धिजीवियों ने देश के सांप्रदायिक सद्भाव पर दुधारी तलवार चलाई। एक तरफ़, बार-बार यह कहकर कि हिन्दुओं की भीड़ ने एक मुसलमान को मार डाला, हिन्दुओं के प्रति मुसलमानों की नफ़रत को भड़काया। दूसरी तरफ़, गो-मांस के मुद्दे पर हिन्दुओं की भावनाओँ की लगातार अनदेखी करके मुसलमानों के प्रति हिन्दुओं की नफ़रत को भड़काया।

याद कीजिए, दादरी कांड के बाद एक कुटिल कांग्रेसी मुख्यमंत्री ने हिन्दुओं को चिढ़ाते हुए कहा कि अब तो मैं ज़रूर गो-मांस खाऊंगा। दूसरी तरफ़, मां की कोख से ही क्रांतिकारी पैदा होने वाले कम्युनिस्टों ने सड़क पर गो-मांस खाते हुए जुलूस निकाला। ऐसी और भी कई घटनाएं हुईं, जिनसे लगा कि देश के तमाम पागलखानों की दीवारें तोड़कर सारे पगलाए हुए लोग मीडिया, सियासत और साहित्य में घुस गए हैं।

जबकि, जैसे हर घटना को कानून-व्यवस्था के दायरे में डील किया जा सकता है, वैसे ही दादरी की घटना को भी किया जा सकता था और किया गया। उस घटना को हिन्दू-मुस्लिम रंग देने की चाहे जितनी भी कोशिशें हुईं, लेकिन न तो इस्लाम की रक्षा के लिए अल्लाह ने किसी पैगंबर को भेजा, न हिन्दुत्व के उद्धार के लिए किसी देवी या देवता का अवतरण हुआ। हालात को संभालने के लिए कानून-व्यवस्था संभालने वाली एजेंसियां ही बीच में आईँ। न कुरान की आयतें आईं, न पुराण के श्लोक आए। आईं आईपीसी की वह धाराएं ही, जिनके मुताबिक संदिग्धों को पकड़कर दोषियों को सज़ा दिलाने की कार्रवाई शुरू की जा सकी।

आज अगर बाबा कबीरदास जीवित होते, तो हिन्दुओं और मुसलमानों को लड़ाने की ताक में लगे रहने वाले इन सारे पुरस्कार-प्राप्त लेखकों का मुंह नोंच लेते। उनकी वे ऐसी धुलाई करते कि ये लोग चूहे की तरह किसी बिल में घुस जाते और जनता को भी यह अहसास हो जाता कि जिनमें संवेदना नहीं, वे साहित्यकार कैसे? जिनमें विवेक नहीं, वे बुद्धिजीवी किस बात के?

आज अगर बाबा कबीरदास होते, तो निश्चित रूप से यही कहते-
“न कुरान, न पुराण
याद रखो देश का संविधान।
न ईश्वर, न अल्लाह
इंसानियत सबसे ऊपर है जहांपनाह!”

आख़िर उन्होंने तो कहा ही था न-
“मंदिर तोड़ो, मस्जिद तोड़ो, यह सब खेल मज़ा का है
पर किसी का दिल मत तोड़ो, यह तो वास ख़ुदा का है।“

राहुल बाबा फिर विदेश चले गए हैं (कविता)















राहुल बाबा फिर विदेश चले गए हैं
किस देश गए हैं, बताकर नहीं गए, वरना ज़रूर बताता
उनकी ग़ैर-मौजूदगी में बड़ी अकेली पड़ जाती हैं उनकी माता!

कितने दिन के लिए गए हैं, यह भी तो उन्होंने बताया नहीं
क्या करने गए हैं, इस बारे में भी कुछ जताया नहीं
जून की इन सुलगती गर्मियों में पार्टी के लोग हो गए बिना छाता!

मुझे चिंता हो रही है कांग्रेस की, जिसे सर्जरी की ज़रूरत है
और सर्जरी की डेट टलती ही जा रही है
130 साल पुरानी काया अब गलती ही जा रही है
पर जो सर्जन है, वही फिर रहा है क्यों छिपता-छिपाता?

राहुल बाबा का जी अगर है ज़िम्मेदारी से घबराता
तो प्रियंका बेबी को ही हम बुला लेते
उनके मैजिक की माया में साल दो साल तो ख़ुद को भुला लेते
पर इस अनिश्चय की स्थिति में तो हमें कुछ भी नहीं है बुझाता!

दिग्गी से पिग्गी से, मणि से शनि से भी तो काम नहीं चलता
क्या करें, कांग्रेस में गांधी-नेहरू के सिवा कोई नाम नहीं चलता
ये कैसे कठिन समय में हमें डाल दिया, हे दाता!

पहले वाले दिन कितने अच्छे थे।
एक मम्मी थी और हम ढेर सारे बच्चे थे।
न कोई बही थी, न था कोई खाता।
जो जी में आता, वही था खा जाता।

(20 जून 2016)

Wednesday, May 11, 2016

अपने जातिवादी और सांप्रदायिक मित्रों से दो टूक

(11 मई 2016)

मेरे कई मित्रों की मुश्किल है कि जब मैं मोदी, बीजेपी और आरएसएस की आलोचना करता हूं, तो वे पढ़ते नहीं या पढ़कर इग्नोर कर देते हैं, लेकिन जब मोदी, बीजेपी, आरएसएस के विरोधियों की आलोचना करता हूं, तो वे हमारी निष्ठा पर सवाल उठाने लगते हैं।

जब तक हमारे ऐसे मित्र जातिवादी और सांप्रदायिक नज़रिए से सोचते रहेंगे, तब तक उन्हें मेरी बातें सूट नहीं करेंगी और इसमें मैं उनकी कोई मदद भी नहीं कर सकता, क्योंकि उनके दिमाग में नफ़रत और नकारात्मकता का ज़हर भरा हुआ है। हमारे ऐसे मित्र ज़रा इंटरनेट सर्च कर लें। मेरे सैकड़ों आर्टिकल्स उन्हें मोदी, बीजेपी, आरएसएस और हिन्दुत्ववादी शक्तियों के ख़िलाफ़ भी मिल जाएंगे, जिन्हें उन्होंने या तो पढ़ा नहीं या पढ़कर इग्नोर कर दिया।

मैं कई बार साफ़ कर चुका हूं कि मोदी-विरोध और सरकार-विरोध एक बात है, लेकिन देश-विरोध और मानवता-विरोध दूसरी बात है। मेरी मजबूरी यह है कि मैं मोदी, बीजेपी और आरएसएस के विरोध में इस हद तक नहीं गिर सकता कि बंदूक के दम पर देश के टुकड़े-टुकड़े करने की सौगंध उठाने वालों का समर्थन करूं या अफ़ज़ल और याकूब जैसे आतंकवादियों के महिमामंडन में कार्यक्रम करने वालों को अपना मसीहा मान लूं।

आप दिन-रात मोदी, भाजपा और आरएसएस को गरियाएं, मेरी बला से। लेकिन आप देश को गरियाएंगे, सीमा पर रोज़ हमारे-आपके लिए जान देने वाले जवानों को गरियाएंगे, बेगुनाहों की जान लेने वाले आतकंवादियों का महिमामंडन करेंगे, उन्हें बिहार की बेटी और देश का लाल- वगैरह वगैरह बताएंगे, तो मैं पूरी ताकत से आपके चेहरे का नकाब नोंच डालने की कोशिश करूंगा।

मेरे लिए देश महानतम है और मोदी मामूली है। इसलिए मैं चाहता हूं कि देश के असली मुद्दों पर बात करो। गरीब-गुरबों की बात करो। किसानों-मजदूरों की बात करो। रोटी-पानी की बात करो। महंगाई, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार की बात करो। सियासी मिलीभगत से शिक्षा-स्वास्थ्य को हाइजैक कर चुके माफिया की बात करो। बच्चे मिड डे मील खाकर मर जाते हैं, उनकी बात करो। बहन-बेटियों के रेपिस्टों को राजनीतिक संरक्षण मिलता है, उसकी बात करो। नेताओँ की बिगड़ैल औलादों की बात करो। राजनीति और अंडरवर्ल्ड के एक जैसा हो जाने पर बात करो।

अगर मोदी से प्रॉब्लम है, तो सरकार के परफॉरमेंस पर बात करो। ये क्या हुआ कि कभी उसकी बीवी के पीछे पड़ गए, कभी उसकी डिग्री के पीछे पड़ गए, कभी उसके सूट के पीछे पड़ गए? इसलिए अगर आप लोग बौरा गए हैं, सनसनी और पागलपन बेचना चाहते हैं, जनता को मूर्ख बनाने में आपको मज़ा आने लगा है, तो इस नीच-कर्म में मुझे अपना शागिर्द क्यों बनाना चाहते हैं?

एक बात और। जब भी आप मेरी बातों को संदर्भ से काटकर उसे अलग रंग देना चाहते हैं या मुझे भक्त, निक्करधारी इत्यादि घोषित करने की कोशिश करते हैं, तो मुझे पता चल जाता है कि आप स्वयं कितने बड़े जातिवादी और सांप्रदायिक व्यक्ति हैं। मेरी सारी डिग्रियां असली हैं और आप जैसे तमाम लोगों से अधिक पढ़ा-लिखा हूं मैं।

यह तो मैं लोकतंत्र, नागरिक अधिकारों और विचार एवं अभिव्यक्ति की आज़ादी का सम्मान करने वाला एक सहिष्णु भारतीय हूं, इसलिए आपको "आदरणीय" और "परम आदरणीय" लिखकर समझाता रह जाता हूं और आपसे यह भी नहीं कहता कि पहले अपने लहू से जातिवाद और सांप्रदायिकता का ज़हर निकालिए, फिर मुझसे बात कीजिए।

आशा है, मेरे सभी जातिवादी और सांप्रदायिक मित्र आज ही से अपनी रक्त-शुद्धि के लिए चिरौता पीना शुरू कर देंगे और दिमाग की दुरुस्ती के लिए अखरोट, बादाम और शंखपुष्पी का भी सेवन करने लगेंगे। अगर इतने से भी समस्या हल नहीं होती, तो निश्चित रूप से उन्हें किसी अच्छे मनो-चिकित्सक की सलाह लेनी चाहिए, क्योंकि नफ़रत और नकारात्मकता से बड़ी कोई बीमारी नहीं।

सादर शुक्रिया।

Wednesday, March 16, 2016

हम छप्पन इंच की छाती का दम देखना चाहते हैं मोदी जी!

(28 फरवरी 2016)

हाल के महीनों में अलग-अलग मुद्दों को लेकर गुजरात में पटेलों ने, मालदा और पूर्णिया में अल्पसंख्यकों ने, आंध्र प्रदेश में कापुओं ने और हरियाणा में जाटों ने जिस बड़े पैमाने पर हिंसा मचाई है, वह सिर्फ़ सरकार के ख़िलाफ़ नहीं, बल्कि देश के ख़िलाफ़ भी बड़ी साज़िश की तरफ़ इशारा है।

क्या सरकार को इन साज़िशों की भनक है? और अगर है, तो वह इन्हें बेनकाब करने के लिए, साज़िशकर्ताओं को पकड़ने व सज़ा दिलाने के लिए और आगे ऐसी घटनाएं न होने देने के लिए क्या कर रही है? क्या कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के नेता भी इनमें शामिल हैं? सरकार इतनी डिफेंसिव क्यों है?

फिलहाल तो मुझे साज़िशकर्ता सफ़ल दिखाई दे रहे हैं। सरकार विफल दिखाई दे रही है। हम छप्पन इंच की छाती का दम देखना चाहते हैं! क्या यह दिखेगा? या इसी तरह उत्पाती उस छाती को रौदकर निकल जाया करेंगे?

राहुल की राष्ट्रघाती राजनीति की क्षय हो!

खिलाड़ी अगर अंपायर के फ़ैसले पर असंतुष्टि ज़ाहिर कर दे, तो उसे सज़ा हो जाती है। विराट कोहली पर मैच फीस का तीस फीसदी जुर्माना लगा दिया गया है। लेकिन देश का नागरिक अगर सबसे बड़े अंपायर यानी सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को "न्यायिक हत्या" कहे, तो वह क्रांतिकारी कहलाता है!

राहुल की राष्ट्रघाती राजनीति की क्षय हो!
(28 फरवरी 2016)



"प्रथम पंकज सिंह स्मृति सम्मान" के लिए "भोर" संस्था का शुक्रिया!

अभिरंजन कुमार को प्रथम पंकज सिंह स्मृति सम्मान
प्रदान करते हुए वरिष्ठ पत्रकार अरविंद मोहन
(8 मार्च 2016)

सामाजिक संस्था "भोर" और सुगौली प्रेस क्लब, मोतिहारी का मैं तह-ए-दिल से शुक्रिया अदा करता हूं, जिन्होंने साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए इस नाचीज़ को प्रथम पंकज सिंह स्मृति सम्मान से सम्मानित कर गरिमा प्रदान की।

ऐतिहासिक "सुगौली संधि" के 200 साल पूरे होने के मौके पर "भोर" और सुगौली प्रेस क्लब ने मिलकर 4 और 5 मार्च को मोतिहारी में "भोर लिटरेचर फेस्टिवल" का आयोजन किया था, जिसमें भारत और नेपाल के अलग-अलग हिस्सों से कई गणमान्य लोग शामिल हुए।

इस मौके पर साहित्य और समाज के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए वरिष्ठ साहित्यकार श्री विभूति नारायण राय को भी सम्मानित किया गया। उन्हें प्रथम रमेश चंद्र झा स्मृति सम्मान दिया गया। स्वर्गीय रमेशचंद्र झा एक स्वाधीनता सेनानी और बिहार के चर्चित गीतकार-उपन्यासकार थे।

निर्णायक मंडल के सदस्यों वरिष्ठ पत्रकार श्री अरविंद मोहन, श्री अतुल सिन्हा और श्री अनुरंजन झा के लिए भी कृतज्ञता, जिन्होंने हमें इस महत्वपूर्ण शुरुआत में शामिल किया। साथ ही मोतिहारी और बेतिया के अपने उन तमाम भाइयों-बहनों का भी शुक्रिया, जिन्होंने दो दिन तक "ठगों" की इस दुनिया में मुझे "सगों" से भी बढ़कर स्नेह दिया।

विडंबना

(10 मार्च 2016)

वे रोज़-रोज़ नूसन्स (nuisance) क्रिएट करें।
तथ्यों के साथ बलात्कार करें।
ख़ुद महिलाओं से उद्दंडता करें, पर सेना के जवानों को बलात्कारी बताएं।
बार-बार लोगों की भावनाएं आहत करें।
जातिवाद और सांप्रदायिकता को हवा देने की कोशिश करें।
ज़मानत को उकसाऊ भाषण देने का लाइसेंस समझ लें।
अदालत की हिदायतों की अनदेखी करें।
कानून के छिद्रों का फ़ायदा उठाएं।
देश-विरोधी ताकतों के इशारे पर खेलें और सबूत न होने की आड़ लें।
राजनीति और इतिहास के बारे में अपने अधकचरे ज्ञान को अंतिम समझ लें।
अन्य विचारों के लिए असहिष्णुता और नफ़रत दिखाएं।

फिर भी उन्हें कोई छू दे, तो हंगामा।
कोई कुछ कह दे, तो बवाल।
कोई उंगली उठा दे, तो जनसंघी।
उनके साथ कुछ भी हो, उसके लिए उनका ख़ुद का व्यवहार दोषी नहीं।
देश की पुलिस और सरकार उनकी सुरक्षा में पगलाई फिरे।

मीडिया के दुलारे हैं वे।
अलगाववादियों और नक्सलियों के प्यारे हैं वे।
सभी सवालों से ऊपर हैं वे।
लोग कहते हैं कि देश का भविष्य हैं वे।
पर मालूम नहीं... देश के किस टुकड़े का भविष्य हैं वे!

खलनायक ही बन गए हैं मीडिया के नायक!

(11 मार्च 2016)

अब राज ठाकरे, अरविंद केजरीवाल, सोमनाथ भारती, कन्हैया, उमर ख़ालिद, साक्षी महाराज, योगी आदित्यनाथ, साध्वी प्राची, निरंजन ज्योति, संगीत सोम, आज़म ख़ान, अबू आज़मी, असदुद्दीन औबैसी, अकबरुद्दीन ओबैसी जैसों का ही ज़माना है। सोच, व्यवहार और बयानों में जितना नीचे गिरोगे, सियासत में उतना ऊपर उठोगे।

टीआरपी और रीडरशिप लोलुप मीडिया को सनसनी चाहिए, उन्माद चाहिए, कट्टरता चाहिए, जातिवाद चाहिए, सांप्रदायिकता चाहिए, झगड़ा चाहिए, बंटवारा चाहिए, दंगा चाहिए, गंदगी चाहिए, कीचड़ चाहिए, नंगई चाहिए, निर्लज्जता चाहिए, घिन चाहिए, उबकाई चाहिए, उल्टी चाहिए... इसलिए उल्टी बातें करने वाले सभी खलनायक उसके नायक बन गए हैं।

वदन बेचने वाली स्त्री प्रॉस्टीट्यूट कही जाती है। फिर ईमान बेचने वाले मीडिया को लोग अगर प्रेस्टीट्यूट कहने लगे हैं, तो क्या ग़लत करते हैं? जिन लोगों का बहिष्कार होना चाहिए, वे लोग सारे पन्ने, सारा एयरटाइम लूट रहे हैं। संपादकों की बुद्धि बिला गई है, आत्मा का अपहरण हो गया है, संवेदना सूख गई है, सोच को लकवा मार गया है।

हमारे मीडिया के भीतर आपस में ही कुत्ते-बिल्लियों जैसे झगड़े छिड़ गए हैं। संपादकगण एक-दूसरे की छीछालेदर करने में मशगूल हैं। जनपक्षधरता को तिलांजलि देकर हमने सियासी पक्षपात की नीति अपना ली है। मीडिया एकता कब की ख़त्म हो चुकी है। कलम के सिपाहियों की ऐसी गिरावट अफ़सोसनाक, ख़तरनाक और दुर्भाग्यपूर्ण है।

अब दुस्साहसी मां-बाप ही अपनी बेटियों को भेजेंगे जेएनयू!

(13 मार्च 2013)

अगले सत्र से जेएनयू में प्रवेश लेने वाले छात्रों की गुणवत्ता में और खासकर लड़कियों की संख्या में खासी गिरावट आ सकती है. पिछले एक महीने में ऐसे कई अभिभावकों से बातचीत हुई, जो अपनी बेटियों को उच्च-शिक्षा के लिए किसी अच्छी यूनिवर्सिटी में भेजना चाहते हैं, लेकिन जेएनयू का नाम आते ही वे कांपने लगते हैं.

दरअसल जेएनयू के भीतर जिस तरह की गतिविधियां चल रही हैं और जैसी तस्वीरें वहां से बाहर आ रही हैं, उन्हें देखते हुए आम अभिभावकों में गहरी चिंता है. खासकर कुछ सियासी दलों और मीडिया के एक हिस्से द्वारा जिस तरह से वहां के हर गलत को सही ठहराने की कोशिश हो रही है, उससे उन्हें यह आश्वासन भी नहीं मिल पा रहा कि निकट भविष्य में वहां सब कुछ ठीक हो जाएगा.

एक अभिभावक ने कटाक्ष करते हुए कहा कि बेटियां “दुर्गा” सरीखी शक्ति-स्वरूपा होती हैं, लेकिन कानून के राज में आज वे “महिषासुरों” का “वध” भी नहीं कर सकतीं. और तो और, अभिव्यक्ति की “आज़ादी” की आड़ में “महिषासुरों” द्वारा किए जा रहे तांडवों पर उंगली भी नहीं उठा सकतीं. विशेष परिस्थितियों में उन्हें समय पर पुलिस की यथोचित मदद भी शायद ही मिल पाए, क्योंकि विश्वविद्यालय प्रशासन तो छोड़िए... कैम्पस में घुसने, किसी को हिरासत में लेने या किसी के खिलाफ जांच शुरू करने के लिए पुलिस को पहले राजनीतिक दलों और मीडिया से भी अप्रूवल लेना होगा.

उक्त अभिभावक ने कहा कि जेएनयू से बाहर अपराध की घटनाएं होने पर पहले एफआईआर होती है, फिर आरोपी अरेस्ट किये जा सकते हैं, फिर जांच होती है, फिर आरोप सही या गलत साबित होते हैं. लेकिन जेएनयू के भीतर हुए अपराध के मामलों में एफआईआर और गिरफ्तारी से पहले पुलिस को ऐसे निर्णायक सबूत जुटाने होंगे, जो निचली अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक अकाट्य हों और जो कश्मीरी अलगाववादियों से लेकर पाकिस्तान तक सबको निर्विवाद रूप से मान्य हों.

उन्होंने कहा कि जेएनयू के भीतर हुए अपराध के मामलों में किसी भी जांच एजेंसी के लिए सबूत जुटाना भी बालू से तेल निकालने के बराबर है. उदाहरण के लिए, पुलिस अगर कोई वीडियो या तस्वीर पेश करेगी, तो पहले तो “महिषासुर-पक्ष” उसका डॉक्टर्ड संस्करण लाकर उसमें “दुर्गा-पक्ष” की ही संलिप्तता साबित करने की कोशिश करेगा. फिर जब वह संलिप्तता साबित नहीं हो पाएगी, तो वह हल्ला मचाएगा कि “दुर्गा-पक्ष” ने ही वीडियो/तस्वीरों में डॉक्टरिंग की है. इतना ही नहीं, “महिषासुर-पक्ष” द्वारा वीडियो और तस्वीरों की डॉक्टरिंग एक नई क्रांति का आगाज मानी जाएगी.

उनके मुताबिक, जब तक जेएनयू में अघोषित रूप से धारा 370 या उससे भी अधिक तगड़ा कोई कानून लागू है और उसे “स्पेशल स्टेट्स” हासिल है, तब तक “महिषासुर-मंडली” के बीच अपनी बेटियों को भेजना “भ्रूण-हत्या” से भी बड़ा अपराध है. जिन्हें अपनी बेटियों से वैर होगा, वही बिना किसी हथियार के उन्हें समस्त हथियारों से लैस “महिषासुर-मंडली” से जूझने के लिए भेज सकते हैं.

एक अन्य अभिभावक से हुई बातचीत में दूसरे किस्म की चिंताएं उभर कर सामने आईं. उनका कहना था कि जब “प्रगतिशीलता” और “स्त्री-पुरुष बराबरी” का पैमाना “साथ-साथ शराब का पैमाना छलकाने” और “सेक्स-उच्छृंखलता” को ही मान लिया जाए, तो हमारे लिए इस बात की गुंजाइश भी कहां बचती है कि ऐसे संस्थान में हम अपने बच्चों को पढ़ने के लिए भेजें? उनका कहना था कि बेटियां तो दूर, अपने बेटों को भी जेएनयू भेजने से पहले वे हजार बार सोचेंगे.

कई अभिभावक जेएनयू की “डफली टोली” से भी आक्रांत दिखे. उन्हें देखकर उनके जेहन में जंगलों में पेड़ों की फुनगियों पर बंदूक संभाले माओवादियों और नक्सलियों की छवि घूमने लगती है. उनमें से एक ने कहा कि “डफली टोली” जब मुंह ऊपर उठाए आसमान के सभी चांद-तारों पर थूकना स्टार्ट कर देती है, तो उस "बारिश" की चपेट में सिर्फ़ वही नहीं आती, बल्कि आसपास के तमाम लोग भी आ जाते हैं.

“डफली टोली” से आक्रांत एक अन्य अभिभावक ने कहा कि भारत की “बर्बादी” के नारे लगाने वालों और मनुवाद से “आज़ादी” के नारे लगाने वालों की जब धुनें एक हैं, बोल एक हैं, लय एक है, सुर एक है, तो कैसे मान लें कि वे लोग इकट्ठे काम नहीं कर रहे? कैसे मान लें कि देशद्रोह के नारों में कुछ शब्दों का हेर-फेर भर कर देने से कोई राष्ट्रभक्त क्रांतिकारी हो जाएगा?

उन्होंने कहा कि भारत की “बर्बादी” चाहने वाले अगर मनुवाद से “आज़ादी” चाहने वालों के साथ खड़े दिखें और मनुवाद से “आज़ादी” चाहने वाले अगर भारत की “बर्बादी” चाहने वालों के साथ खड़े दिखें, तो क्या फर्क पड़ता है कि किसने कौन-से नारे लगाए और किसने कौन-से नारे नहीं लगाए? इससे तो इतना ही समझ आता है कि दोनों का मकसद देश को तोड़ना है और एक ही गुट, एक ही विचार के लोग देश को तोड़ने के लिए अलग-अलग हथियारों का इस्तेमाल कर रहे हैं. भौगोलिक विभाजन को बढ़ावा देने के लिए भारत की “बर्बादी” के नारे लगाए जा रहे हैं और जातीय विभाजन को बढ़ावा देने के लिए मनुवाद से “आज़ादी” के नारे लगाए जा रहे हैं.

कई अभिभावकों ने साफ़-साफ़ यह आशंका ज़ाहिर की कि वहां पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई, आतंकवादी संगठनों, कश्मीरी अलगाववादियों और माओवादियों का पैसा आ रहा है, वरना छात्रों और शिक्षकों के ऐसे विचार का कोई कारण समझ नहीं आता. यह पैसा किस रूप में आ रहा है और कितनी मात्रा में आ रहा है, इसकी जांच होनी चाहिए. मुमकिन है कि कई छात्र सिर्फ़ पॉकेट खर्च, शराब की बोतलें और सेक्स-उच्छृंखलताओं की आज़ादी मिल जाने भर से रास्ता भटक जाते हों, लेकिन देश-विरोधी ज्ञान बांटने वाले शिक्षक बेहद शातिर होंगे, इससे इनकार नहीं किया जा सकता.

बहरहाल, अनेक अभिभावकों से बातचीत के बाद पूरे जेएनयू विवाद को एक दूसरे परिप्रेक्ष्य में समझने का मौका मिला, जो मीडिया में अब तक हुई चर्चाओं से समझ पाना मुश्किल नहीं, नामुमकिन था.

डिस्क्लेमर- यह लेख पूरी तरह से कुछ अभिभावकों की राय के आधार पर लिखा गया है। निजी तौर पर उन अभिभावकों की राय से मैं पूरी तरह निरपेक्ष हूं। ज़रूरी नहीं कि मैं उनसे सहमत होऊं और यह भी ज़रूरी नहीं कि मैं उनसे असहमत होऊं।

जय भारत! जय पाकिस्तान! जय बांग्लादेश!

(14 मार्च 2016)

जब आप "भारत की बर्बादी के नारे" लगाएं और "पाकिस्तान ज़िंदाबाद" बोलें, तब यह देशद्रोह है। लेकिन अगर आप "भारत ज़िंदाबाद" और "पाकिस्तान ज़िंदाबाद" दोनों साथ-साथ बोलें और दोनों देशों की तरक्की की कामना करें, तो यह इस उप-महाद्वीप में शांति और सौहार्द्र की हमारी आकांक्षा है।

अगर भारत का कोई नागरिक पाकिस्तान जाकर "भारत ज़िंदाबाद" बोले, तो इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है। इसी तरह अगर पाकिस्तान का कोई नागरिक हमारे यहां आकर "पाकिस्तान ज़िंदाबाद" बोले, तो इसमें भी कुछ ग़लत नहीं है। किसी भी देश का नागरिक अपने देश की जय-जय तो कर ही सकता है, चाहे वह किसी भी दूसरे मुल्क में क्यों न चले जाए।

राजनीतिक कारणों से हर बात का बतंगड़ बनाकर या तो हम अपनी नासमझी उजागर करते हैं या फिर अपनी कुटिलता ही दुनिया को दिखाते हैं। रविशंकर के कार्यक्रम में ऐसा कुछ नहीं हुआ, जिसे देशद्रोह की संज्ञा दी जा सके या इसका हवाला देकर उन लोगों की आलोचना की जा सके, जिन्होंने जेएनयू में लगे देशद्रोही नारों का विरोध किया था।

मैं भी "भारत ज़िंदाबाद" के साथ "पाकिस्तान ज़िंदाबाद" और "बांग्लादेश ज़िंदाबाद" बोलना चाहता हूं। आख़िर ख़ून तो हम तीनों का एक ही है और सिर्फ़ बांटने वाली राजनीति के चलते ही हम लोग एक-दूसरे के ख़ून के प्यासे हुए हैं। मेरा तो यहां तक ख्याल है कि आरएसएस भी अगर "अखंड भारत" की बात करता है, तो उसे उन मुल्कों की जय बोलने में दिक्कत नहीं होगी, बशर्ते कि वे भारत-विरोधी कोई गतिविधि न चलाएं।

हालांकि मैं जानता हूं कि ऐसा अब कभी संभव नहीं है, फिर भी ज़रा सोचिए कि अगर किसी दिन भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश- तीनों फिर से एक हो जाएं, तो एकीकृत भारत/अखंड भारत/वृहत भारत निश्चित ही दुनिया का सबसे ताकतवर मुल्क बन जाएगा। अगर उपरोक्त तीनों नामों पर सहमति न बन सके, तो मैं तो उस एकीकृत मुल्क का नाम "हिन्दोस्लां/हिन्दोस्लाम" रखने तक को तैयार हो जाऊंगा।

मेरा मानना है कि भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश- इन तीनों मुल्कों में ज़्यादातर समस्याएं विभाजन की कोख से ही पैदा हुई हैं। जिस दिन तीनों एक हो जाएंगे, उसी दिन से उनके अच्छे दिनों की शुरुआत हो जाएगी, क्योंकि इससे इन मुल्कों में घिनौनी सांप्रदायिक राजनीति का अंत हो जाएगा और हिन्दुओं व मुसलमानों में एकता कायम हो जाएगी।

इतना ही नहीं, एकीकृत भारत में एक तरफ़ जहां भारतीय मुसलमानों का मुख्यधारा से कटे होने का अहसास खत्म हो जाएगा, वहीं पाकिस्तान और बांग्लादेश के मुसलमानों की भी किस्मत चमक जाएगी। उनके बच्चे छाती पर बम बांधकर नहीं मरेंगे, न बच्चों को स्कूल जाने पर गोली मारी जाएगी। उस दिन एकीकृत भारत के हिन्दू भी अधिक प्राउड हिन्दू होंगे।

इसलिए बंटवारे की राजनीति के बीच कहीं से भी अगर कोई ऐसी बात आती है, जिससे भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में एकता की भावना को ताकत मिले, तो हमें उसका स्वागत करना चाहिए, न कि उसपर भी गंदी राजनीति शुरू कर देनी चाहिए।

"फूट डालो, फ्रूट खा लो" की नीति पर चलते हैं पढ़े-लिखे लोग!

(16 मार्च 2016)

कोई अगर "भारत माता की जय" या "वन्दे मातरम्" नहीं बोलता, तो न बोले, पर ऐसा भी न कहे कि मेरी गर्दन पर चाकू रख दोगे, तो भी नहीं बोलूंगा। न ही कोई सचमुच इस बात के लिए उसकी गर्दन पर चाकू रख दे कि बोलोगे कैसे नहीं?

यह सब अपनी-अपनी आस्था के विषय हैं। हिन्दुओं में भी आस्तिक और नास्तिक होते हैं। जो नास्तिक होते हैं, वे किसी देवी-देवता की जय नहीं बोलते, तो क्या उन्हें धर्म और समाज से बाहर कर दिया जाना चाहिए या विधर्मी और असामाजिक मान लिया जाना चाहिए?

अगर हमारे मुस्लिम भाइयों-बहनों की अपनी कुछ धार्मिक मान्यताएं हैं, जिनके चलते वह निराकार एकेश्वरवाद में यकीन रखते हैं और मूर्ति या चित्र रूप में किसी की उपासना नहीं करना चाहते, तो देश के नाम पर ही सही, उनपर ऐसा करने का दबाव नहीं डालना चाहिए।

अगर कोई ये नारे लगाता है कि "भारत तेरी बर्बादी तक जंग रहेगी" या "भारत तेरे टुकड़े होंगे" या "बंदूक के दम पर लेंगे आज़ादी"- तो यह निश्चित रूप से देशद्रोह है। जो उन्हें देशद्रोही नहीं मानकर उनका बचाव और समर्थन करते हैं, मैं उनकी पुरज़ोर निंदा करता हूं।

लेकिन मैं उन लोगों की भी निंदा करता हूं, जो "भारत माता की जय" या "वन्दे मातरम्" नहीं बोलने पर किसी को देशद्रोही घोषित कर देते हैं। मेरे ख्याल से देश के सभी नागरिकों को स्वयं ही यह तय करने दिया जाना चाहिए कि वह अपने मुल्क से किस रूप में मोहब्बत करें।

मुझे सबसे ज़्यादा शिकायत देश के पढ़े-लिखे लोगों से है, जो स्वार्थ के लिए नफ़रत, उन्माद, जातिवाद और सांप्रदायिकता का धंधा कर रहे हैं। पढ़े-लिखे लोग सामूहिक नहीं, व्यक्तिगत फ़ायदे में यकीन रखते हैं, इसलिए वे "फूट डालो, फ्रूट खा लो" की नीति पर चलते हैं।

इसे नियम की तरह तो पेश नहीं किया जा सकता, पर मेरा अनुभव यही है कि पढ़े-लिखे लोग अनपढ़-ग़रीबों की तुलना में अधिक जातिवादी और सांप्रदायिक होते हैं। अगर ये पढ़े-लिखे लोग इतने जातिवादी और सांप्रदायिक न होते, तो ये बुराइयां कब की ख़त्म हो गई होतीं।

इतना ही नहीं, एक अनपढ़-ग़रीब तो इसी मिट्टी में पैदा होता है और इसी की सेवा करते हुए इसी में मिट जाता है। लेकिन एक पढ़ा-लिखा आदमी जैसे ही थोड़ा सक्षम हो जाता है, न सिर्फ़ दूसरे देशों में जा बसने का सपना देखने लगता है, बल्कि बात-बात पर देश बांटने, देश तोड़ने या देश छोड़ने की धमकी भी देने लगता है।

उदाहरण के लिए, आपने विद्वान लेखक यूआर अनंतमूर्ति को देश छोड़ने की धमकी देते सुना, लेकिन क्या कभी किसी अनपढ़-ग़रीब हिन्दू को ऐसी धमकी देते सुना? इसी तरह, आपने विद्वान अभिनेता आमिर ख़ान को भी देश छोड़ने की धमकी देते सुना, पर क्या किसी अनपढ़-ग़रीब मुसलमान को ऐसी धमकी देते सुना?

हमारे पढ़े-लिखे लोग अन्य तरीकों से भी देश की जड़ें खोखली करने में जुटे हैं। भ्रष्टाचार क्या है? अगर इससे देश को नुकसान पहुंचता है, तो क्या यह देशघात नहीं है? और अगर यह देशघात है, तो यह कौन कर रहा है इस मुल्क में?

इसलिए बात हिन्दू-मुसलमान की है ही नहीं। भारत का हर अनपढ़-ग़रीब हिन्दू और मुसलमान देशभक्त है और इसी देश में जीने-मरने की तमन्ना रखता है। यह डिवीज़न और डिस्ट्रक्शन वाला कीड़ा तो दोनों समुदायों के पढ़े-लिखे-सक्षम लोगों के दिमाग में है!


इसका एक निष्कर्ष यह भी है कि प्रॉब्लम हमारी शिक्षा-व्यवस्था में ही है! इसलिए दिल्ली हाई कोर्ट की जज प्रतिभा रानी ने सर्जरी वाली जो बात कही थी, मेरे ख्याल से उसकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत हमारी शिक्षा-व्यवस्था में ही है। पढ़े-लिखे लोगो... शर्म करो।

Thursday, February 18, 2016

अपनी विचारधारा के बारे में दो टूक

मैं जब सड़क पर पैदल चलता हूं या साइकिल चलाता हूं, तो बाएं चलता हूं, ताकि आती-जाती गाड़ियों से अपनी रक्षा कर सकूं। जब कार चलाता हूं, तो दाएं चलता हूं, ताकि आते-जाते पैदल या साइकिल यात्रियों को मेरी वजह से परेशानी न हो। जहां कहीं दाएं या बाएं मोड़ हो और मुझे सीधा जाना हो, तो गाड़ी बीच की लेन पर ले आता हूं।

जीवन भी इसी तरह चलता है। जड़ता और हठधर्मिता से काम नहीं चलता। विचारों को लेकर कट्टरता महामूर्ख लोग रखते हैं। कोई भी विचार संपूर्ण नहीं होता। ग़रीब-गुरबों-मज़दूरों-किसानों के सवालों पर शायद मैं वामपंथ के करीब हूं। देश, माटी, भाषा, संस्कृति के सवालों पर शायद मैं दक्षिणपंथ के करीब हूं। सभी जाति, संप्रदाय, क्षेत्र, भाषा, विचारों के लोगों को साथ लेकर चलना है, इसलिए मध्यमार्गी हूं, सहिष्णु हूं।

अगर मैं सिर्फ़ वामपंथ या दक्षिणपंथ को मानता, तो जड़ होता, कट्टर होता, हठधर्मी होता, पढ़ा-लिखा मूर्ख होता, हिंसक होता, असहिष्णु होता, वैचारिक छुआछूत रखता, सामने वाले को बर्दाश्त कर पाने का साहस नहीं रखता। अगर मैं सिर्फ़ कांग्रेसी होता, तो धूर्त होता, शातिर होता, ढुलमुल होता, भ्रष्ट होता, चापलूसी-पसंद होता, हर वक्त साज़िशें रचता और अपने फ़ायदे के लिए हर विचार और सरोकार का सत्यानाश करने पर आमादा रहता।

मैं लकीर का फकीर नहीं हूं। मैं किसी एक ग्रंथ को धर्म नहीं मान सकता। मैं किसी एक किताब से अपना सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक व्यवहार तय नहीं कर सकता। मैं किसी एक नेता को अपना ख़ुदा या किसी एक ख़ुदा को अपना नेता नहीं मान सकता। मैं किसी एक विचार के शिकंजे में जकड़कर अन्य विचारो से नफ़रत नहीं कर सकता। दुनिया सिर्फ़ मेरी नहीं है। मैं अकेला इस दुनिया का नहीं हूं। मैं सबके साथ रहना चाहता हूं। मैं सबको साथ रखना चाहता हूं।

मैं विचारों को व्यक्तिगत संबंधों के बीच में कभी नहीं आने देता। जो मुझसे सहमत हैं, उनका भी स्वागत है। जो मुझसे असहमत हैं, उनका और भी स्वागत है। मेरे साथ चाय पीते हुए आप मुझसे बिल्कुल उलट विचार रख सकते हैं और मैं इसे अत्यंत सहजता से लेता हूं। मेरे फोरम पर आकर आप मेरी पूरी आलोचना कर सकते हैं और कभी मुझे अपनी मर्यादा और संयम खोते हुए नहीं पाएंगे आप। मैं ऐसा इसलिए हूं क्योंकि मैं शायद भारतीय होने के गूढ़ अर्थ, विनम्रता भरी गरिमा और महती ज़िम्मेदारी को समझता हूं।

मैं अपनी बात को मज़बूती और बेबाकी से रखना चाहता हूं। जीवन एक ही बार मिला है, इसलिए मैं डिप्लोमैटिक होकर वह लिखने-बोलने से बचने की मूर्खता नहीं कर सकता, जो मैं महसूस करता हूं। मैं ग़रीबी, भुखमरी, अन्याय, शोषण, भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ एक निर्णायक लड़ाई चाहता हूं। मैं जातिवाद, सांप्रदायिकता और क्षेत्रवाद के ख़िलाफ़ भी एक निर्णायक लड़ाई चाहता हूं। मैं देश की एकता और अखंडता के सवाल पर समझौता नहीं कर सकता। वसुधैव कुटुम्बकम यानी पूरी धरती हमारी है, लेकिन व्यवस्था बनाए रखने के लिए देश मानव-हित में हैं।

मेरे जो भी विचार हैं, मेरे अपने हैं। मेरे जो भी विचार हैं, मैं उनपर पक्का हूं। मैं अपने विचारों में कभी किसी पल भी ढुलमुल नहीं हूं। मैं अपनी आलोचनाओं से कभी विचलित नहीं होता हूं। जब मैंने साहित्य, मीडिया और सामाजिक जीवन में आने का निर्णय किया, तभी मैंने यह तय कर लिया कि मैं अपने हिसाब से चलूंगा। किसी से डिक्टेट होकर चलना मेरी फितरत में नहीं है। किसी का यसमैन आज तक नहीं बना, तो अब क्या बनूंगा!

मैं लोकतंत्र में समस्त राजनीतिक दलों को एक पक्ष और जनता को दूसरा पक्ष मानता हूं। इसलिए मैं कभी निष्पक्ष नहीं हो सकता। मैं हमेशा जनता के पक्ष में खड़ा रहता हूं और रहूंगा। इसलिए मैं जन-पक्षधर हूं, निष्पक्ष नहीं हूं।

जब सिर्फ़ अलग-अलग राजनीतिक दलों को संदर्भ में रखेंगे, तो यह संभव है कि आपको ऐसा लगे कि मैं किसी विशेष के पक्ष में झुका हुआ हूं। लेकिन यह देश और जनता के हितों की मेरी निजी समझ के मुताबिक, विशुद्ध रूप से मुद्दों के आधार पर होता है, न कि उस दल विशेष के लिए मेरे किसी स्थायी झुकाव की वजह से। अगर कभी मुद्दों के आधार पर मेरा ऐसा झुकाव बनता भी है, तो वहां प्रतिकूल सोच रखने वालों के लिए पूरा स्पेस छोड़ता हूं।

बाबा रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा है- "यदि तुम्हारी आवाज़ सुनकर कोई न आए, तब अकेले चलो।" मैं अकेला चल रहा हूं। जो साथ हैं, उनका स्वागत। जो साथ नहीं हैं, उनका भी पूरा-पूरा सम्मान। सबसे मोहब्बत है। गिला किसी से नहीं। इंसानियत मेरा धर्म। भारतीय मेरी जाति। जय हिन्द।

(18 फरवरी 2016)

Tuesday, January 19, 2016

क्या अब कायर और पलायनवादी भी योद्धा कहे जाएंगे!

(19 जनवरी 2016)
रोहित के साथ अगर कुछ ग़लत हुआ, तो उसकी पड़ताल करो। गुनहगारों को सज़ा दो। लेकिन प्लीज़ उसे हीरो मत बनाओ। क्या हम अपने बच्चों और नौजवानों को यह बताना चाहते हैं कि कोई आत्महत्या करके भी हीरो बन सकता है?
अब तक तो हम यही समझते रहे हैं कि आत्महत्या कायर, पलायनवादी, अवसादग्रस्त, हताश और दृष्टिविहीन लोगों का काम है। क्या इस बार हम यह स्थापित करना चाहते हैं कि आत्महत्या करके भी कोई योद्धा का खिताब पा सकता है?
सियासी चालों और असहिष्णुता का हौवा खड़ा करने में हम इतने दिग्भ्रमित न हो जाएं कि पूरी पीढ़ी को ही आत्महत्या के लिए उकसाने लग जाएं। दुनिया में 740 करोड़ लोग हैं और सबकी ज़िंदगी में कोई न कोई विषाद है। क्या हम उन्हें आत्महत्या करना सिखाएं?
अभी तो मैं इस विवाद में जाना ही नहीं चाहता कि रोहित वेमुला को याकूब मेनन से किस बात की सहानुभूति थी या वह यूनिवर्सिटी में बीफ पार्टी के आयोजकों का साथ क्यों दे रहा था? अभी मैं इतना जानता हूं कि मैं उसके साथ नहीं हूं और इसलिए नहीं हूं, क्योंकि उसने आत्महत्या की।
आत्महत्या करना आज भी इस देश में गैरकानूनी है। उसने ऐसा करके न सिर्फ़ एक ग़ैरकानूनी काम किया, बल्कि नौजवानों के सामने ग़लत नज़ीर भी पेश की। अगर वह लड़ता तो हम सोचते कि उसके मुद्दे सही हैं या ग़लत हैं। अगर वह लड़ते-लड़ते मरता, तो उसके लिए प्रेम और श्रद्धा भी रखते।
लेकिन उसने लड़ना छोड़कर मरने का रास्ता चुना। फिर उससे कैसी सहानुभूति? इतना ही नहीं, वह तो इतना बड़ा कायर निकला कि आत्महत्या कर ली, लेकिन एक मुद्दा नहीं उठाया, एक आदमी का नाम नहीं लिया, किसी एक की ज़िम्मेदारी नहीं डाली।
सियासत करने वाले रोहित वेमुला को हीरो, योद्धा और पीड़ित-प्रताड़ित वगैरह घोषित कर सकते हैं, लेकिन मैं जितना समझ पा रहा हूं, वह एक कमज़ोर, कायर, पलायनवादी, दृष्टिरहित, हताश, अवसादग्रस्त और बीमार लड़का था, जो वैचारिक भेड़चाल का शिकार हो गया और जिसे काउंसिलिंग की ज़रूरत थी।
बहुत मुमकिन है कि उसे आत्महत्या के लिए उकसाने वाले उसके साथीगण ही हों। इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि पूरे मामले की निष्पक्ष न्यायिक जांच हो। इस तरह के संवेदनशील मामलों में क्या हमारा सिस्टम इतना भी नहीं कर सकता कि त्वरित जांच और इंसाफ़ हो जाया करे और तब तक किसी को भी राजनीतिक रोटियां सेंकने की इजाज़त न दी जाए।
एक बात और। अगर राम के नाम पर बनी राम-सेना के लोग रावण-सेना की तरह और शिव के नाम पर बनी शिव-सेना के लोग प्रेत-सेना की तरह व्यवहार कर सकते है, तो ज़रूरी नहीं कि अंबेडकर के नाम पर बने सभी संगठनों के तमाम लोग भी एकलव्य ही हों।
बहरहाल, अब इस देश में ऐसा माहौल बन गया है कि पहले हर आदमी की जाति देखी जाएगी, धर्म देखा जाएगा, और अगर यह सियासी रोटियां सेंकने के लिए अनुकूल हुआ, तो उसके सही का विरोध और ग़लत का समर्थन भी किया जा सकता है।
यह कड़वा है और अपच है। दुर्भाग्यपूर्ण है, पर सच है।

सेल्फ-रेगुलेशन ईमानदारों के लिए होता है, दलालों के लिए नहीं!

(19 जनवरी 2016)

क्या आपको भी लगता है कि पिछले कुछ समय से देश का मीडिया तथ्यों की ठीक से पड़ताल करने की समझदारी और धैर्य दिखाए बिना... कुछ हड़बड़ाहट में और कुछ शातिराना इरादों से प्रेरित होकर... एकतरफ़ा और उन्मादपूर्ण रिपोर्टिंग कर रहा है... और सांप्रदायिकता और जातिवाद को भड़काकर मुल्क का माहौल बिगाड़ने में जुटा हुआ है?

क्या आपको भी लगता है कि अपने व्यावसायिक फ़ायदों के लिए अथवा अलग-अलग राजनीतिक गिरोहों से ठेका लेकर... येन-केन-प्रकारेण देश में अलग-अलग जातियों और संप्रदायों के लोगों में असुरक्षा और अलगाव की भावना को हवा देना... हमारे मीडिया का मुख्य धंधा बन गया है?

मुझे तो लगता है कि आज मीडिया में सिर्फ़ विज्ञापन और प्रोमोशनल ही नहीं, अधिकांश ख़बरें और बहस-मुबाहसे भी पेड हैं। मुझे इस बात की पक्की जानकारी है कि मीडिया के अलग-अलग हिस्सों ने गुप्त ठेका लेकर कई किस्म के अलगावदियों और नफ़रत के सौदागरों को आगे बढ़ाने का काम किया है।

आजकल सारे प्रमुख मीडिया हाउसेज के प्रतिनिधि विभिन्न सरकारों के सूचना विभागों में... उन सरकारों में काबिज राजनीतिक दलों और नेताओं के अच्छे-बुरे एजेंडे को आगे बढ़ाने के प्रस्तावों के साथ मिलते हैं... और इसी बुनियाद पर विज्ञापन बटोरते हैं। इस खेल में बड़े पैमाने पर दलाली और कमीशनखोरी तो होती ही है, ख़बरों और विचारों का सौदा भी हो जाता है।

कई बार बड़े नेताओं और मालिकों-संपादकों की दोस्ताना मुलाक़ातों में भी न्यूज़ और व्यूज़ नीलाम हो जाते हैं। इतना ही नहीं, मीडिया से इतर अन्य प्रभावशाली कॉरपोरेट्स भी न्यूज़ और व्यूज़ ख़रीद रहे हैं। देश की जनता उन बिके हुए समाचारों और विचारों को निष्पक्ष और सही मानकर उद्वेलित-आंदोलित होती रहती है और सियासत, मीडिया और कॉरपोरेट घरानों में बैठे झूठ, सनसनी और उन्माद के धूर्त व्यापारी ख़ुश होते रहते हैं।

अगर कोई ऐसा ऑडिट हो, जिसमें विभिन्न मीडिया हाउसों को अलग-अलग सरकारों, संस्थाओं और कॉरपोरेट समूहों से मिले विज्ञापनों और उनके यहां प्रसारित कंटेन्ट की व्यापक समीक्षा हो, तो सारा दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा। यह यूं ही नहीं है कि देश की लगभग सभी सरकारों ने पिछले कुछ साल में विज्ञापनों का बजट बेहिसाब बढ़ा दिया है।

इसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि पुराने घाघों की सरकारों को तो छो़ड़िए, केजरीवाल जैसे नौसिखिए ने भी सरकार में आते ही दिल्ली की जनता के पांच सौ करोड़ से अधिक फूंक डाले। ऐसा वास्तव में मीडिया घरानों को ख़रीदने और ऑबलाइज करने के लिए... और इस तरह उनकी बोलती बंद करने के लिए किया जाता है।

हक़ीक़त यह है कि देश की कई सरकारें दलाली, कमीशनखोरी और ख़रीद-फ़रोख्त के इसी धंधे के बल पर सुशासन वाली सरकारें कहलाती हैं। इसलिए जो लोग मीडिया सुधार चाहते हैं, उनकी पहली और प्रमुख मांग ही यह होनी चाहिए कि प्राइवेट मीडिया को सरकारी विज्ञापन बंद होना चाहिए। मीडिया को भ्रष्ट बनाने में इन सरकारी विज्ञापनों का बहुत बड़ा हाथ है।

जिन पूंजीपतियों में बिना सरकारी मदद के चलने का बूता न हो, वे प्राइवेट मीडिया में न कूदें। अगर ऐसा हो जाए, तो कुकुरमुत्ते की तरह उग आने वाले और फिर कुछ समय तक ब्लैकमेलिंग और दलाली का धंधा चलाने के बाद पत्रकारों का पैसा हजम कर रफूचक्कर हो जाने वाले मीडिया हाउसों पर भी लगाम लग सकेगी।

जहां तक सरकारों का सवाल है, तो उनके पास अपनी नीतियों और योजनाओं के प्रचार के लिए पहले से ही ऐसे बहुतेरे सरकारी प्लेटफॉर्म्स और तरीके मौजूद हैं, जिनमें देश की जनता का अरबों नहीं, खरबों लगा हुआ है। उनका उचित इस्तेमाल नहीं करके प्राइवेट मीडिया हाउसों को हर साल अरबों का विज्ञापन देना अपने आप में देश की जनता से धोखा और बहुत बड़ा घोटाला है।

मैं यह नहीं मानता कि भारत में मीडिया की आज़ादी पर किसी किस्म का ख़तरा है। बल्कि यह मानता हूं कि मीडिया भारत में ज़रूरत से ज़्यादा आज़ाद हो गया है। लोकतंत्र के तीनों स्तंंभों में गड़बड़ी हो, तो आप मीडिया में आकर उनके ख़िलाफ़ बोल सकते हैं और लोगों तक अपनी आवाज़ पहुंचा सकते हैं, लेकिन मीडिया की गड़बड़ी के ख़िलाफ़ आप कहां बोलेंगे?

इक्का-दुक्का मीडिया हाउसों को छोड़कर, जिनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता बेहद स्पष्ट है, बाकी मीडिया हाउसेज फेवर लेकर फेवर करने का खेल खेलते हैं। ऐसे मीडिया हाउसेज के बारे में पब्लिक को कभी ऐसा लग सकता है कि वे अमुक राजनीतिक दल के लिए बैटिंग कर रहे हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि अपेक्षित फेवर न मिलने पर वे उसके ख़िलाफ़ भी जा सकते हैं।

भारत में मीडिया निरंकुश है। यह सिर्फ़ अर्द्धसत्य है कि सरकारें और सियासी दल मीडिया को इस्तेमाल कर रहे हैं। बाकी का सत्य यह है कि मीडिया हाउसेज भी सरकारों और सियासी दलों को इस्तेमाल करते हैं। इस खेल में साधारण पत्रकार अपनी इज़्ज़त और इमेज तो गंवा रहा है, लेकिन बड़े मालिकान, बड़े संपादक और बड़े एंकर्स बगुला भगत बने बैठे रहते हैं।

आख़िर में, फिर कह रहा हूं कि आज हमारे मीडिया का अधिकांश कन्टेन्ट पेड है और हमारा मीडिया बिल्कुल बेलगाम है। इसीलिए इसपर फालतू के वाद, विवाद, उन्माद, सनसनी, अंधविश्वास, बाबा, प्रवचन, रहस्य, स्वर्ग की सीढ़ी, नरक के द्वार, अश्लीलता, नशीले पदार्थों का प्रमोशन और मिर्च-मसाला बहुत है, लेकिन जनता के असली मुद्दे, असली मुश्किलें गायब हैं।

सेल्फ रेगुलेशन उन लोगों के लिए होता है, जो बेईमान न हों। दलालों पर सेल्फ-रेगुलेशन लागू कर देंगे, तो बेड़ा तो गर्क होगा न? आज वही हो रहा है।