Tuesday, January 19, 2016

सेल्फ-रेगुलेशन ईमानदारों के लिए होता है, दलालों के लिए नहीं!

(19 जनवरी 2016)

क्या आपको भी लगता है कि पिछले कुछ समय से देश का मीडिया तथ्यों की ठीक से पड़ताल करने की समझदारी और धैर्य दिखाए बिना... कुछ हड़बड़ाहट में और कुछ शातिराना इरादों से प्रेरित होकर... एकतरफ़ा और उन्मादपूर्ण रिपोर्टिंग कर रहा है... और सांप्रदायिकता और जातिवाद को भड़काकर मुल्क का माहौल बिगाड़ने में जुटा हुआ है?

क्या आपको भी लगता है कि अपने व्यावसायिक फ़ायदों के लिए अथवा अलग-अलग राजनीतिक गिरोहों से ठेका लेकर... येन-केन-प्रकारेण देश में अलग-अलग जातियों और संप्रदायों के लोगों में असुरक्षा और अलगाव की भावना को हवा देना... हमारे मीडिया का मुख्य धंधा बन गया है?

मुझे तो लगता है कि आज मीडिया में सिर्फ़ विज्ञापन और प्रोमोशनल ही नहीं, अधिकांश ख़बरें और बहस-मुबाहसे भी पेड हैं। मुझे इस बात की पक्की जानकारी है कि मीडिया के अलग-अलग हिस्सों ने गुप्त ठेका लेकर कई किस्म के अलगावदियों और नफ़रत के सौदागरों को आगे बढ़ाने का काम किया है।

आजकल सारे प्रमुख मीडिया हाउसेज के प्रतिनिधि विभिन्न सरकारों के सूचना विभागों में... उन सरकारों में काबिज राजनीतिक दलों और नेताओं के अच्छे-बुरे एजेंडे को आगे बढ़ाने के प्रस्तावों के साथ मिलते हैं... और इसी बुनियाद पर विज्ञापन बटोरते हैं। इस खेल में बड़े पैमाने पर दलाली और कमीशनखोरी तो होती ही है, ख़बरों और विचारों का सौदा भी हो जाता है।

कई बार बड़े नेताओं और मालिकों-संपादकों की दोस्ताना मुलाक़ातों में भी न्यूज़ और व्यूज़ नीलाम हो जाते हैं। इतना ही नहीं, मीडिया से इतर अन्य प्रभावशाली कॉरपोरेट्स भी न्यूज़ और व्यूज़ ख़रीद रहे हैं। देश की जनता उन बिके हुए समाचारों और विचारों को निष्पक्ष और सही मानकर उद्वेलित-आंदोलित होती रहती है और सियासत, मीडिया और कॉरपोरेट घरानों में बैठे झूठ, सनसनी और उन्माद के धूर्त व्यापारी ख़ुश होते रहते हैं।

अगर कोई ऐसा ऑडिट हो, जिसमें विभिन्न मीडिया हाउसों को अलग-अलग सरकारों, संस्थाओं और कॉरपोरेट समूहों से मिले विज्ञापनों और उनके यहां प्रसारित कंटेन्ट की व्यापक समीक्षा हो, तो सारा दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा। यह यूं ही नहीं है कि देश की लगभग सभी सरकारों ने पिछले कुछ साल में विज्ञापनों का बजट बेहिसाब बढ़ा दिया है।

इसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि पुराने घाघों की सरकारों को तो छो़ड़िए, केजरीवाल जैसे नौसिखिए ने भी सरकार में आते ही दिल्ली की जनता के पांच सौ करोड़ से अधिक फूंक डाले। ऐसा वास्तव में मीडिया घरानों को ख़रीदने और ऑबलाइज करने के लिए... और इस तरह उनकी बोलती बंद करने के लिए किया जाता है।

हक़ीक़त यह है कि देश की कई सरकारें दलाली, कमीशनखोरी और ख़रीद-फ़रोख्त के इसी धंधे के बल पर सुशासन वाली सरकारें कहलाती हैं। इसलिए जो लोग मीडिया सुधार चाहते हैं, उनकी पहली और प्रमुख मांग ही यह होनी चाहिए कि प्राइवेट मीडिया को सरकारी विज्ञापन बंद होना चाहिए। मीडिया को भ्रष्ट बनाने में इन सरकारी विज्ञापनों का बहुत बड़ा हाथ है।

जिन पूंजीपतियों में बिना सरकारी मदद के चलने का बूता न हो, वे प्राइवेट मीडिया में न कूदें। अगर ऐसा हो जाए, तो कुकुरमुत्ते की तरह उग आने वाले और फिर कुछ समय तक ब्लैकमेलिंग और दलाली का धंधा चलाने के बाद पत्रकारों का पैसा हजम कर रफूचक्कर हो जाने वाले मीडिया हाउसों पर भी लगाम लग सकेगी।

जहां तक सरकारों का सवाल है, तो उनके पास अपनी नीतियों और योजनाओं के प्रचार के लिए पहले से ही ऐसे बहुतेरे सरकारी प्लेटफॉर्म्स और तरीके मौजूद हैं, जिनमें देश की जनता का अरबों नहीं, खरबों लगा हुआ है। उनका उचित इस्तेमाल नहीं करके प्राइवेट मीडिया हाउसों को हर साल अरबों का विज्ञापन देना अपने आप में देश की जनता से धोखा और बहुत बड़ा घोटाला है।

मैं यह नहीं मानता कि भारत में मीडिया की आज़ादी पर किसी किस्म का ख़तरा है। बल्कि यह मानता हूं कि मीडिया भारत में ज़रूरत से ज़्यादा आज़ाद हो गया है। लोकतंत्र के तीनों स्तंंभों में गड़बड़ी हो, तो आप मीडिया में आकर उनके ख़िलाफ़ बोल सकते हैं और लोगों तक अपनी आवाज़ पहुंचा सकते हैं, लेकिन मीडिया की गड़बड़ी के ख़िलाफ़ आप कहां बोलेंगे?

इक्का-दुक्का मीडिया हाउसों को छोड़कर, जिनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता बेहद स्पष्ट है, बाकी मीडिया हाउसेज फेवर लेकर फेवर करने का खेल खेलते हैं। ऐसे मीडिया हाउसेज के बारे में पब्लिक को कभी ऐसा लग सकता है कि वे अमुक राजनीतिक दल के लिए बैटिंग कर रहे हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि अपेक्षित फेवर न मिलने पर वे उसके ख़िलाफ़ भी जा सकते हैं।

भारत में मीडिया निरंकुश है। यह सिर्फ़ अर्द्धसत्य है कि सरकारें और सियासी दल मीडिया को इस्तेमाल कर रहे हैं। बाकी का सत्य यह है कि मीडिया हाउसेज भी सरकारों और सियासी दलों को इस्तेमाल करते हैं। इस खेल में साधारण पत्रकार अपनी इज़्ज़त और इमेज तो गंवा रहा है, लेकिन बड़े मालिकान, बड़े संपादक और बड़े एंकर्स बगुला भगत बने बैठे रहते हैं।

आख़िर में, फिर कह रहा हूं कि आज हमारे मीडिया का अधिकांश कन्टेन्ट पेड है और हमारा मीडिया बिल्कुल बेलगाम है। इसीलिए इसपर फालतू के वाद, विवाद, उन्माद, सनसनी, अंधविश्वास, बाबा, प्रवचन, रहस्य, स्वर्ग की सीढ़ी, नरक के द्वार, अश्लीलता, नशीले पदार्थों का प्रमोशन और मिर्च-मसाला बहुत है, लेकिन जनता के असली मुद्दे, असली मुश्किलें गायब हैं।

सेल्फ रेगुलेशन उन लोगों के लिए होता है, जो बेईमान न हों। दलालों पर सेल्फ-रेगुलेशन लागू कर देंगे, तो बेड़ा तो गर्क होगा न? आज वही हो रहा है।

No comments:

Post a Comment