Wednesday, March 16, 2016

अब दुस्साहसी मां-बाप ही अपनी बेटियों को भेजेंगे जेएनयू!

(13 मार्च 2013)

अगले सत्र से जेएनयू में प्रवेश लेने वाले छात्रों की गुणवत्ता में और खासकर लड़कियों की संख्या में खासी गिरावट आ सकती है. पिछले एक महीने में ऐसे कई अभिभावकों से बातचीत हुई, जो अपनी बेटियों को उच्च-शिक्षा के लिए किसी अच्छी यूनिवर्सिटी में भेजना चाहते हैं, लेकिन जेएनयू का नाम आते ही वे कांपने लगते हैं.

दरअसल जेएनयू के भीतर जिस तरह की गतिविधियां चल रही हैं और जैसी तस्वीरें वहां से बाहर आ रही हैं, उन्हें देखते हुए आम अभिभावकों में गहरी चिंता है. खासकर कुछ सियासी दलों और मीडिया के एक हिस्से द्वारा जिस तरह से वहां के हर गलत को सही ठहराने की कोशिश हो रही है, उससे उन्हें यह आश्वासन भी नहीं मिल पा रहा कि निकट भविष्य में वहां सब कुछ ठीक हो जाएगा.

एक अभिभावक ने कटाक्ष करते हुए कहा कि बेटियां “दुर्गा” सरीखी शक्ति-स्वरूपा होती हैं, लेकिन कानून के राज में आज वे “महिषासुरों” का “वध” भी नहीं कर सकतीं. और तो और, अभिव्यक्ति की “आज़ादी” की आड़ में “महिषासुरों” द्वारा किए जा रहे तांडवों पर उंगली भी नहीं उठा सकतीं. विशेष परिस्थितियों में उन्हें समय पर पुलिस की यथोचित मदद भी शायद ही मिल पाए, क्योंकि विश्वविद्यालय प्रशासन तो छोड़िए... कैम्पस में घुसने, किसी को हिरासत में लेने या किसी के खिलाफ जांच शुरू करने के लिए पुलिस को पहले राजनीतिक दलों और मीडिया से भी अप्रूवल लेना होगा.

उक्त अभिभावक ने कहा कि जेएनयू से बाहर अपराध की घटनाएं होने पर पहले एफआईआर होती है, फिर आरोपी अरेस्ट किये जा सकते हैं, फिर जांच होती है, फिर आरोप सही या गलत साबित होते हैं. लेकिन जेएनयू के भीतर हुए अपराध के मामलों में एफआईआर और गिरफ्तारी से पहले पुलिस को ऐसे निर्णायक सबूत जुटाने होंगे, जो निचली अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक अकाट्य हों और जो कश्मीरी अलगाववादियों से लेकर पाकिस्तान तक सबको निर्विवाद रूप से मान्य हों.

उन्होंने कहा कि जेएनयू के भीतर हुए अपराध के मामलों में किसी भी जांच एजेंसी के लिए सबूत जुटाना भी बालू से तेल निकालने के बराबर है. उदाहरण के लिए, पुलिस अगर कोई वीडियो या तस्वीर पेश करेगी, तो पहले तो “महिषासुर-पक्ष” उसका डॉक्टर्ड संस्करण लाकर उसमें “दुर्गा-पक्ष” की ही संलिप्तता साबित करने की कोशिश करेगा. फिर जब वह संलिप्तता साबित नहीं हो पाएगी, तो वह हल्ला मचाएगा कि “दुर्गा-पक्ष” ने ही वीडियो/तस्वीरों में डॉक्टरिंग की है. इतना ही नहीं, “महिषासुर-पक्ष” द्वारा वीडियो और तस्वीरों की डॉक्टरिंग एक नई क्रांति का आगाज मानी जाएगी.

उनके मुताबिक, जब तक जेएनयू में अघोषित रूप से धारा 370 या उससे भी अधिक तगड़ा कोई कानून लागू है और उसे “स्पेशल स्टेट्स” हासिल है, तब तक “महिषासुर-मंडली” के बीच अपनी बेटियों को भेजना “भ्रूण-हत्या” से भी बड़ा अपराध है. जिन्हें अपनी बेटियों से वैर होगा, वही बिना किसी हथियार के उन्हें समस्त हथियारों से लैस “महिषासुर-मंडली” से जूझने के लिए भेज सकते हैं.

एक अन्य अभिभावक से हुई बातचीत में दूसरे किस्म की चिंताएं उभर कर सामने आईं. उनका कहना था कि जब “प्रगतिशीलता” और “स्त्री-पुरुष बराबरी” का पैमाना “साथ-साथ शराब का पैमाना छलकाने” और “सेक्स-उच्छृंखलता” को ही मान लिया जाए, तो हमारे लिए इस बात की गुंजाइश भी कहां बचती है कि ऐसे संस्थान में हम अपने बच्चों को पढ़ने के लिए भेजें? उनका कहना था कि बेटियां तो दूर, अपने बेटों को भी जेएनयू भेजने से पहले वे हजार बार सोचेंगे.

कई अभिभावक जेएनयू की “डफली टोली” से भी आक्रांत दिखे. उन्हें देखकर उनके जेहन में जंगलों में पेड़ों की फुनगियों पर बंदूक संभाले माओवादियों और नक्सलियों की छवि घूमने लगती है. उनमें से एक ने कहा कि “डफली टोली” जब मुंह ऊपर उठाए आसमान के सभी चांद-तारों पर थूकना स्टार्ट कर देती है, तो उस "बारिश" की चपेट में सिर्फ़ वही नहीं आती, बल्कि आसपास के तमाम लोग भी आ जाते हैं.

“डफली टोली” से आक्रांत एक अन्य अभिभावक ने कहा कि भारत की “बर्बादी” के नारे लगाने वालों और मनुवाद से “आज़ादी” के नारे लगाने वालों की जब धुनें एक हैं, बोल एक हैं, लय एक है, सुर एक है, तो कैसे मान लें कि वे लोग इकट्ठे काम नहीं कर रहे? कैसे मान लें कि देशद्रोह के नारों में कुछ शब्दों का हेर-फेर भर कर देने से कोई राष्ट्रभक्त क्रांतिकारी हो जाएगा?

उन्होंने कहा कि भारत की “बर्बादी” चाहने वाले अगर मनुवाद से “आज़ादी” चाहने वालों के साथ खड़े दिखें और मनुवाद से “आज़ादी” चाहने वाले अगर भारत की “बर्बादी” चाहने वालों के साथ खड़े दिखें, तो क्या फर्क पड़ता है कि किसने कौन-से नारे लगाए और किसने कौन-से नारे नहीं लगाए? इससे तो इतना ही समझ आता है कि दोनों का मकसद देश को तोड़ना है और एक ही गुट, एक ही विचार के लोग देश को तोड़ने के लिए अलग-अलग हथियारों का इस्तेमाल कर रहे हैं. भौगोलिक विभाजन को बढ़ावा देने के लिए भारत की “बर्बादी” के नारे लगाए जा रहे हैं और जातीय विभाजन को बढ़ावा देने के लिए मनुवाद से “आज़ादी” के नारे लगाए जा रहे हैं.

कई अभिभावकों ने साफ़-साफ़ यह आशंका ज़ाहिर की कि वहां पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई, आतंकवादी संगठनों, कश्मीरी अलगाववादियों और माओवादियों का पैसा आ रहा है, वरना छात्रों और शिक्षकों के ऐसे विचार का कोई कारण समझ नहीं आता. यह पैसा किस रूप में आ रहा है और कितनी मात्रा में आ रहा है, इसकी जांच होनी चाहिए. मुमकिन है कि कई छात्र सिर्फ़ पॉकेट खर्च, शराब की बोतलें और सेक्स-उच्छृंखलताओं की आज़ादी मिल जाने भर से रास्ता भटक जाते हों, लेकिन देश-विरोधी ज्ञान बांटने वाले शिक्षक बेहद शातिर होंगे, इससे इनकार नहीं किया जा सकता.

बहरहाल, अनेक अभिभावकों से बातचीत के बाद पूरे जेएनयू विवाद को एक दूसरे परिप्रेक्ष्य में समझने का मौका मिला, जो मीडिया में अब तक हुई चर्चाओं से समझ पाना मुश्किल नहीं, नामुमकिन था.

डिस्क्लेमर- यह लेख पूरी तरह से कुछ अभिभावकों की राय के आधार पर लिखा गया है। निजी तौर पर उन अभिभावकों की राय से मैं पूरी तरह निरपेक्ष हूं। ज़रूरी नहीं कि मैं उनसे सहमत होऊं और यह भी ज़रूरी नहीं कि मैं उनसे असहमत होऊं।

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