(11 मार्च 2016)
अब राज ठाकरे, अरविंद केजरीवाल, सोमनाथ भारती, कन्हैया, उमर ख़ालिद, साक्षी महाराज, योगी आदित्यनाथ, साध्वी प्राची, निरंजन ज्योति, संगीत सोम, आज़म ख़ान, अबू आज़मी, असदुद्दीन औबैसी, अकबरुद्दीन ओबैसी जैसों का ही ज़माना है। सोच, व्यवहार और बयानों में जितना नीचे गिरोगे, सियासत में उतना ऊपर उठोगे।
टीआरपी और रीडरशिप लोलुप मीडिया को सनसनी चाहिए, उन्माद चाहिए, कट्टरता चाहिए, जातिवाद चाहिए, सांप्रदायिकता चाहिए, झगड़ा चाहिए, बंटवारा चाहिए, दंगा चाहिए, गंदगी चाहिए, कीचड़ चाहिए, नंगई चाहिए, निर्लज्जता चाहिए, घिन चाहिए, उबकाई चाहिए, उल्टी चाहिए... इसलिए उल्टी बातें करने वाले सभी खलनायक उसके नायक बन गए हैं।
वदन बेचने वाली स्त्री प्रॉस्टीट्यूट कही जाती है। फिर ईमान बेचने वाले मीडिया को लोग अगर प्रेस्टीट्यूट कहने लगे हैं, तो क्या ग़लत करते हैं? जिन लोगों का बहिष्कार होना चाहिए, वे लोग सारे पन्ने, सारा एयरटाइम लूट रहे हैं। संपादकों की बुद्धि बिला गई है, आत्मा का अपहरण हो गया है, संवेदना सूख गई है, सोच को लकवा मार गया है।
हमारे मीडिया के भीतर आपस में ही कुत्ते-बिल्लियों जैसे झगड़े छिड़ गए हैं। संपादकगण एक-दूसरे की छीछालेदर करने में मशगूल हैं। जनपक्षधरता को तिलांजलि देकर हमने सियासी पक्षपात की नीति अपना ली है। मीडिया एकता कब की ख़त्म हो चुकी है। कलम के सिपाहियों की ऐसी गिरावट अफ़सोसनाक, ख़तरनाक और दुर्भाग्यपूर्ण है।
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