Tuesday, December 8, 2009

ऐसे कमीशन, ऐसी सरकारें, ऐसी राजनीतिक पार्टियाँ लोकतंत्र के लिए घातक हैं

हंगामे के समय सबसे सुचारू रूप से चलती है हमारी संसद!

दोस्तो, यह पोस्ट मैंने लोकसभा टीवी को लाइव देखते हुए लिखी है। उस वक़्त जब लोकसभा में लिबरहान कमीशन की रिपोर्ट पर नियम 193 के तहत चली बहस के बाद गृह मंत्री पी चिदंबरम सरकार की तरफ़ से जवाब दे रहे थे। क्या विडंबना है कि आम परिस्थितियों में संसद में शायद ही कोई नेता अपना भाषण बिना टोका-टोकी के पूरा कर पाता हो, लेकिन जब बीजेपी के सांसद नारेबाज़ी कर रहे थे, माननीय गृह मंत्री को मौका मिल गया कि वो बिना टोका-टोकी के अपना बयान पढ़ डालें। वो एक सांस में अपना बयान पढ़ते जा रहे थे और बीजेपी के सांसद नारेबाज़ी किए जा रहे थे। इससे पता चलता है कि देश के महत्वपूर्ण मसलों पर हमारे राजनीतिक दलों, सरकार और संसद का रवैया कैसा है। बीजेपी के सांसद इस बात से नाराज़ थे कि कांग्रेस सांसद और पूर्व समाजवादी बेनीप्रसाद वर्मा ने अपने भाषण में अटल बिहारी वाजपेयी के ख़िलाफ़ "नीच" जैसे असंसदीय शब्द का इस्तेमाल किया। ये अलग बात है कि बेनी प्रसाद का पूरा भाषण ही मुझे असंसदीय लगा। उन्होंने अपने भाषण में न सिर्फ़ "नीच" शब्द का इस्तेमाल किया, बल्कि आडवाणी को "डूब मरने" के लिए भी कहा, क्योंकि वो पाकिस्तान से आए हैं। उन्होंने कहा कि ख़ुद अपना जन्मस्थान छोड़कर भाग गए आडवाणी राम के जन्मस्थान की लड़ाई लड़ रहे हैं। बीजेपी सांसदों की मांग थी कि बेनी प्रसाद माफ़ी मांगे। गृह मंत्री चिदंबरम ने तो इसपर सरकार की तरफ़ से माफ़ी मांग ली, लेकिन तमाम दबावों के बावजूद बेनीप्रसाद सिर्फ़ खेद जताकर रह गए, माफ़ी नहीं मांगी।

लोकतंत्र का सरासर उड़ाया जा रहा है मज़ाक

ये पूरी तस्वीर हमें सोचने को विवश करती है। हमारी संसद में इस तरह के नेता हैं जिनपर हमें शर्म आती है। एक तरफ़ बेनी प्रसाद जैसे नेता हैं जिन्हें बोलने का शऊर नहीं है। ऐसे नेताओं के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने की बजाय हमारी संसद असहाय दिखती है। दूसरी तरफ़ हमारा विपक्ष है जो सरकार का जवाब सुनने को तैयार नहीं है। अपना विरोध वो दूसरे तरीकों से भी जता सकता था, लेकिन शायद उसकी दिलचस्पी सरकार का जवाब सुनने में है ही नहीं, क्योंकि लिबरहान कमीशन की रिपोर्ट ने आपस में ही लड़-मर रही बीजेपी के लिए संजीवनी बूटी का काम किया है। तीसरी तरफ़ हमारी सरकारें हैं, ख़ुद जिनके लिए भी अयोध्या जैसे संवेदनशील मामले राजनीतिक रोटियाँ सेंकने के लिए गरम तवे से ज़्यादा कुछ नहीं हैं। लिबरहान कमीशन जैसे तमाम कमीशन उसके लिए चिमटे का काम करते हैं जिनके जरिए वो ये रोटियाँ सेंकती चली आ रही है।

ज़रा सोचिए, हम ऐसे कमीशनों का क्या करें, जिनके नतीजों से दोषियों को सज़ा तो नहीं मिलती है, उल्टे उन्हें राजनीति करने का मौका मिलता है। सत्रह साल में हज़ार पेज की रद्दी तैयार करने में इस कमीशन ने आठ करोड़ रूपये फूंक डाले, लेकिन हम किसी नतीजे पर नहीं पहुँच सके। कोढ़ में खाज ये कि सचमुच इस रिपोर्ट में तथ्य की तमाम ग़लतियाँ हैं, जिन्हें ख़ुद सरकार में बैठे लोग भी कबूल कर रहे हैं। और तो और कई सांसदों को तो यहाँ तक बोलने का मौका मिल गया कि अब तो सरकार इस रिपोर्ट को ख़ारिज कर ये जाँच करवाए कि जिस रिपोर्ट को तैयार करने में जस्टिस लिबरहान ने सत्रह साल लगा दिए, उन्होंने ख़ुद उस रिपोर्ट को पढ़ा भी है कि नहीं। इससे ज़्यादा शर्मनाक कुछ नहीं हो सकता। ऐसे आयोगों की रिपोर्टों पर इससे ज़्यादा कुछ कहने को भी नहीं बचता।

बीजेपी आक्रामक, कांग्रेस ढुलमुल

नतीजा सामने है कि बीजेपी एक बार फिर आक्रामक है। बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने कल संसद में साफ़ कहा कि अयोध्या में राम मंदिर था, राम मंदिर है और राम मंदिर रहेगा। आज सुषमा स्वराज ने भी सीना ठोंककर कहा कि जो लिबरहान ने नहीं बताया- हमसे पूछ लो। हम बताते हैं। अगर ये पूछोगे कि अयोध्या में ढांचा ढहा, तो मैं कहूँगी कि हाँ ढहा। अगर ये पूछोगे कि क्या इसके ढहने के पीछे साज़िश थी, तो मैं कहूँगी साज़िश नहीं थी, ये जनांदोलन का परिणाम था। और अगर ये पूछोगे कि क्या आप सज़ा भुगतने को तैयार हैं तो हाँ हम तैयार हैं। जो 6 दिसंबर 1992 को घटनास्थल पर थे, वो नेता भी और जो नहीं थे, वो नेता भी। जो नेता सदन के अंदर हैं वो भी और जो सदन के बाहर हैं, वो भी। दूसरी तरफ़, कांग्रेस एक बार फिर ढुलमुल दिखाई दे रही है। उससे और उम्मीद भी क्या की जा सकती है। जिसने पचास साल सत्ता में रहते हुए इस मामले को दिन-दिन सुलगने दिया, जिसने मंदिर का ताला खुलवाया, जिसने राम जन्मभूमि परिसर में मंदिर का शिलान्यास कराया, और दूसरी किसी भी पार्टी से ज़्यादा शातिराना अंदाज़ में पिछले साठ साल से हिन्दू और मुसलमान वोटों की राजनीति करती आ रही है। ये अलग बात है कि फिर भी उसके माथे पर धर्मनिरपेक्षता का ठप्पा लगा हुआ है।

मैं ऐसे तमाम कमीशनों, ऐसी सरकारों और ऐसी तमाम राजनीतिक पार्टियों की तीखी भर्त्सना करता हूँ जो हमारे लोकतंत्र की जड़ों को खोखला करने में जुटी हैं।



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Tuesday, November 3, 2009

तथाकथित धर्मनिरपेक्षों, बुद्धिजीवियों और सामाजिकों का कच्चा चिट्ठा

सिख दंगों के 25 साल हो गए, करीब तीन हज़ार निर्दोष लोग बेदर्दी से क़त्ल कर दिए गए, लेकिन इंसाफ़ किस चिड़िया का नाम है, क्या आपको मालूम है? अफ़सोस की बात ये है कि धर्म के नाम पर देश के इतिहास का ये सबसे बड़ा क़त्लेआम उन लोगों ने किया, जो माथे पर धर्मनिरपेक्षता की पट्टी चिपकाकर घूम रहे हैं। मैं देश और दुनिया के किसी भी हिस्से में किसी भी मकसद के लिए हुई ऐसी हिंसा की घोर भर्त्सना करता हूँ, जिसमें बेगुनाहों की जान जाती हो। मेरी नज़र में हर इंसानी जान की कीमत बराबर है, चाहे वो हिन्दू की जान हो, या मुसलमान की, या सिख या ईसाई की, लेकिन क्या हमारे देश के तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दल और लोग ऐसा मानते हैं? अगर मानते होते तो फिर क्या बात थी कि गुजरात दंगे पर इंसानियत के पुतले बने ये लोग 1984 के सिख दंगों की चर्चा तक नहीं करना चाहते। कहाँ है इंसाफ आज 25 साल बाद? माफ़ करें, आप मुझे जो भी समझें, मेरी नज़र में इस देश के तथाकथित धर्मनिरपेक्ष और तथाकथित सांप्रदायिक दल- सब एक जैसे हैं, उनमें कोई फर्क नहीं है। मेरी यही पीड़ा मेरी कविता "बुद्धिजीवी की दुकान" में व्यक्त हुई है। यह कविता 2003 में लिखी गई और 2006 में प्रकाशित मेरे दूसरे काव्य-संग्रह "उखड़े हुए पौधे का बयान" में संकलित है। कृपया आप भी इसे देखें-

बुद्धिजीवी की दुकान

"मैं गुजरात में 1,000 मुसलमानों के क़ातिलों को साम्प्रदायिक कहूँ / और दिल्ली में 3,000 सिखों के हत्यारों को धर्मनिरपेक्ष तो चौंकना मत/ क्रिया के बाद प्रतिक्रिया सिद्धांत देने वाले मुख्यमंत्री को दंगाई कहूँ/ और बड़ा पेड़ गिरने के बाद धरती हिलने का सिद्धांत देने वाले / प्रधानमंत्री को मिस्टर क्लीन / तो भी कर लेना यक़ीन।

जिन्होंने पचास साल में एक भी दंगापीड़ित को न्याय नहीं दिलाया/ जिन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के इंसाफ़ को दिखा दिया ठेंगा- / उनकी आरती उतारूँगा मैं / और अपनी प्रतिबद्धता साबित करने के लिए / गिनूँगा सिर्फ़ दूसरे पक्ष के कुकर्म/ मेरी नज़र में मस्जिद ढहाने वाले तो साम्प्रदायिक हैं / लेकिन राजनीतिक फ़ायदे के लिए / मंदिर का ताला खुलवाने वाले दूध के धुले

मैं भूल जाता हूँ कि अंग्रेजों की फूट डालो और शासन करो की नीति / इस देश के सभी सत्तालोलुपों में एक-सी लोकप्रिय है / और सबने सेंकी हैं जलती चिताओं पर स्वार्थ की रोटियाँ / उत्तर से दक्षिण तक, पूरब से पश्चिम तक / जो शातिर हैं, वो जा कर उन चिताओं पर बहा आते हैं आँसू / जो दुस्साहसी, वो दूर से करते हैं अट्टहास / पर सत्ता दोनों को चाहिए अपने पास।

जानता हूँ कि मेरी कानी सोच से कभी ख़त्म नहीं होगी साम्प्रदायिकता / फिर भी दो साम्प्रदायिकों की लड़ाई में मुझे एक को धर्मनिरपेक्ष कहना है / आख़िर मुझे भी इस बाज़ार में रहना है ! "

पूरी कविता पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।

लेखक की साइट का होम पेज- http://www.abhiranjankumar.com

Sunday, November 1, 2009

हमारे समय के प्रगतिशीलों का कच्चा चिट्ठा

हमारे समय के प्रगतिशील लोग (कविता)

"हमारे समय के प्रगतिशील लोगों के लिए / स्त्री के बारे में सोचना माने सेक्स के बारे में सोचना / लोगों के जीने-खाने की आज़ादी से ज़्यादा फ़िक्र / उन्हें उनकी सोने की आज़ादी को लेकर है / दुनिया की सबसे प्रगतिशील स्त्री वो है / जो बाहर अपने पति और परिवार के ख़िलाफ़ बोलती हुई / उनके साथ भीतर चली आए।"

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"हमारे समय के प्रगतिशील लोग चाहते हैं कि सेक्स एजुकेशन बचपन से मिले / ताकि जब आठवीं क्लास के बच्चे एमएमएस बनाएँ / तो कॉन्डोम का इस्तेमाल करना ना भूलें / हमारे समय के प्रगतिशील लोग चाहते हैं कि / एक दिन कॉन्डोम इतना पॉपुलर हो जाए कि / बच्चे कॉन्डोम को गुब्बारों की तरह उड़ाएँ / और माँ-बाप इस महंगाई के ज़माने में गुब्बारों का पैसा बचा लें।"

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"हमारे समय के प्रगतिशील लोग / पुरबा हैं कि पछुआ हैं / खरगोश हैं कि कछुआ हैं / पता ही नहीं चलता। हमारे समय के प्रगतिशील लोग / मोटे हैं कि महीन हैं / अमेरिका हैं कि चीन हैं / पता ही नहीं चलता।"

( इस कविता को पूरा पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें )

लेखक की वेबसाइट के होम पेज का पता: http://www.abhiranjankumar.com