हंगामे के समय सबसे सुचारू रूप से चलती है हमारी संसद!
दोस्तो, यह पोस्ट मैंने लोकसभा टीवी को लाइव देखते हुए लिखी है। उस वक़्त जब लोकसभा में लिबरहान कमीशन की रिपोर्ट पर नियम 193 के तहत चली बहस के बाद गृह मंत्री पी चिदंबरम सरकार की तरफ़ से जवाब दे रहे थे। क्या विडंबना है कि आम परिस्थितियों में संसद में शायद ही कोई नेता अपना भाषण बिना टोका-टोकी के पूरा कर पाता हो, लेकिन जब बीजेपी के सांसद नारेबाज़ी कर रहे थे, माननीय गृह मंत्री को मौका मिल गया कि वो बिना टोका-टोकी के अपना बयान पढ़ डालें। वो एक सांस में अपना बयान पढ़ते जा रहे थे और बीजेपी के सांसद नारेबाज़ी किए जा रहे थे। इससे पता चलता है कि देश के महत्वपूर्ण मसलों पर हमारे राजनीतिक दलों, सरकार और संसद का रवैया कैसा है। बीजेपी के सांसद इस बात से नाराज़ थे कि कांग्रेस सांसद और पूर्व समाजवादी बेनीप्रसाद वर्मा ने अपने भाषण में अटल बिहारी वाजपेयी के ख़िलाफ़ "नीच" जैसे असंसदीय शब्द का इस्तेमाल किया। ये अलग बात है कि बेनी प्रसाद का पूरा भाषण ही मुझे असंसदीय लगा। उन्होंने अपने भाषण में न सिर्फ़ "नीच" शब्द का इस्तेमाल किया, बल्कि आडवाणी को "डूब मरने" के लिए भी कहा, क्योंकि वो पाकिस्तान से आए हैं। उन्होंने कहा कि ख़ुद अपना जन्मस्थान छोड़कर भाग गए आडवाणी राम के जन्मस्थान की लड़ाई लड़ रहे हैं। बीजेपी सांसदों की मांग थी कि बेनी प्रसाद माफ़ी मांगे। गृह मंत्री चिदंबरम ने तो इसपर सरकार की तरफ़ से माफ़ी मांग ली, लेकिन तमाम दबावों के बावजूद बेनीप्रसाद सिर्फ़ खेद जताकर रह गए, माफ़ी नहीं मांगी।
लोकतंत्र का सरासर उड़ाया जा रहा है मज़ाक
ये पूरी तस्वीर हमें सोचने को विवश करती है। हमारी संसद में इस तरह के नेता हैं जिनपर हमें शर्म आती है। एक तरफ़ बेनी प्रसाद जैसे नेता हैं जिन्हें बोलने का शऊर नहीं है। ऐसे नेताओं के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने की बजाय हमारी संसद असहाय दिखती है। दूसरी तरफ़ हमारा विपक्ष है जो सरकार का जवाब सुनने को तैयार नहीं है। अपना विरोध वो दूसरे तरीकों से भी जता सकता था, लेकिन शायद उसकी दिलचस्पी सरकार का जवाब सुनने में है ही नहीं, क्योंकि लिबरहान कमीशन की रिपोर्ट ने आपस में ही लड़-मर रही बीजेपी के लिए संजीवनी बूटी का काम किया है। तीसरी तरफ़ हमारी सरकारें हैं, ख़ुद जिनके लिए भी अयोध्या जैसे संवेदनशील मामले राजनीतिक रोटियाँ सेंकने के लिए गरम तवे से ज़्यादा कुछ नहीं हैं। लिबरहान कमीशन जैसे तमाम कमीशन उसके लिए चिमटे का काम करते हैं जिनके जरिए वो ये रोटियाँ सेंकती चली आ रही है।
ज़रा सोचिए, हम ऐसे कमीशनों का क्या करें, जिनके नतीजों से दोषियों को सज़ा तो नहीं मिलती है, उल्टे उन्हें राजनीति करने का मौका मिलता है। सत्रह साल में हज़ार पेज की रद्दी तैयार करने में इस कमीशन ने आठ करोड़ रूपये फूंक डाले, लेकिन हम किसी नतीजे पर नहीं पहुँच सके। कोढ़ में खाज ये कि सचमुच इस रिपोर्ट में तथ्य की तमाम ग़लतियाँ हैं, जिन्हें ख़ुद सरकार में बैठे लोग भी कबूल कर रहे हैं। और तो और कई सांसदों को तो यहाँ तक बोलने का मौका मिल गया कि अब तो सरकार इस रिपोर्ट को ख़ारिज कर ये जाँच करवाए कि जिस रिपोर्ट को तैयार करने में जस्टिस लिबरहान ने सत्रह साल लगा दिए, उन्होंने ख़ुद उस रिपोर्ट को पढ़ा भी है कि नहीं। इससे ज़्यादा शर्मनाक कुछ नहीं हो सकता। ऐसे आयोगों की रिपोर्टों पर इससे ज़्यादा कुछ कहने को भी नहीं बचता।
बीजेपी आक्रामक, कांग्रेस ढुलमुल
नतीजा सामने है कि बीजेपी एक बार फिर आक्रामक है। बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने कल संसद में साफ़ कहा कि अयोध्या में राम मंदिर था, राम मंदिर है और राम मंदिर रहेगा। आज सुषमा स्वराज ने भी सीना ठोंककर कहा कि जो लिबरहान ने नहीं बताया- हमसे पूछ लो। हम बताते हैं। अगर ये पूछोगे कि अयोध्या में ढांचा ढहा, तो मैं कहूँगी कि हाँ ढहा। अगर ये पूछोगे कि क्या इसके ढहने के पीछे साज़िश थी, तो मैं कहूँगी साज़िश नहीं थी, ये जनांदोलन का परिणाम था। और अगर ये पूछोगे कि क्या आप सज़ा भुगतने को तैयार हैं तो हाँ हम तैयार हैं। जो 6 दिसंबर 1992 को घटनास्थल पर थे, वो नेता भी और जो नहीं थे, वो नेता भी। जो नेता सदन के अंदर हैं वो भी और जो सदन के बाहर हैं, वो भी। दूसरी तरफ़, कांग्रेस एक बार फिर ढुलमुल दिखाई दे रही है। उससे और उम्मीद भी क्या की जा सकती है। जिसने पचास साल सत्ता में रहते हुए इस मामले को दिन-दिन सुलगने दिया, जिसने मंदिर का ताला खुलवाया, जिसने राम जन्मभूमि परिसर में मंदिर का शिलान्यास कराया, और दूसरी किसी भी पार्टी से ज़्यादा शातिराना अंदाज़ में पिछले साठ साल से हिन्दू और मुसलमान वोटों की राजनीति करती आ रही है। ये अलग बात है कि फिर भी उसके माथे पर धर्मनिरपेक्षता का ठप्पा लगा हुआ है।
मैं ऐसे तमाम कमीशनों, ऐसी सरकारों और ऐसी तमाम राजनीतिक पार्टियों की तीखी भर्त्सना करता हूँ जो हमारे लोकतंत्र की जड़ों को खोखला करने में जुटी हैं।
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