Wednesday, March 16, 2016

हम छप्पन इंच की छाती का दम देखना चाहते हैं मोदी जी!

(28 फरवरी 2016)

हाल के महीनों में अलग-अलग मुद्दों को लेकर गुजरात में पटेलों ने, मालदा और पूर्णिया में अल्पसंख्यकों ने, आंध्र प्रदेश में कापुओं ने और हरियाणा में जाटों ने जिस बड़े पैमाने पर हिंसा मचाई है, वह सिर्फ़ सरकार के ख़िलाफ़ नहीं, बल्कि देश के ख़िलाफ़ भी बड़ी साज़िश की तरफ़ इशारा है।

क्या सरकार को इन साज़िशों की भनक है? और अगर है, तो वह इन्हें बेनकाब करने के लिए, साज़िशकर्ताओं को पकड़ने व सज़ा दिलाने के लिए और आगे ऐसी घटनाएं न होने देने के लिए क्या कर रही है? क्या कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के नेता भी इनमें शामिल हैं? सरकार इतनी डिफेंसिव क्यों है?

फिलहाल तो मुझे साज़िशकर्ता सफ़ल दिखाई दे रहे हैं। सरकार विफल दिखाई दे रही है। हम छप्पन इंच की छाती का दम देखना चाहते हैं! क्या यह दिखेगा? या इसी तरह उत्पाती उस छाती को रौदकर निकल जाया करेंगे?

राहुल की राष्ट्रघाती राजनीति की क्षय हो!

खिलाड़ी अगर अंपायर के फ़ैसले पर असंतुष्टि ज़ाहिर कर दे, तो उसे सज़ा हो जाती है। विराट कोहली पर मैच फीस का तीस फीसदी जुर्माना लगा दिया गया है। लेकिन देश का नागरिक अगर सबसे बड़े अंपायर यानी सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को "न्यायिक हत्या" कहे, तो वह क्रांतिकारी कहलाता है!

राहुल की राष्ट्रघाती राजनीति की क्षय हो!
(28 फरवरी 2016)



"प्रथम पंकज सिंह स्मृति सम्मान" के लिए "भोर" संस्था का शुक्रिया!

अभिरंजन कुमार को प्रथम पंकज सिंह स्मृति सम्मान
प्रदान करते हुए वरिष्ठ पत्रकार अरविंद मोहन
(8 मार्च 2016)

सामाजिक संस्था "भोर" और सुगौली प्रेस क्लब, मोतिहारी का मैं तह-ए-दिल से शुक्रिया अदा करता हूं, जिन्होंने साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए इस नाचीज़ को प्रथम पंकज सिंह स्मृति सम्मान से सम्मानित कर गरिमा प्रदान की।

ऐतिहासिक "सुगौली संधि" के 200 साल पूरे होने के मौके पर "भोर" और सुगौली प्रेस क्लब ने मिलकर 4 और 5 मार्च को मोतिहारी में "भोर लिटरेचर फेस्टिवल" का आयोजन किया था, जिसमें भारत और नेपाल के अलग-अलग हिस्सों से कई गणमान्य लोग शामिल हुए।

इस मौके पर साहित्य और समाज के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए वरिष्ठ साहित्यकार श्री विभूति नारायण राय को भी सम्मानित किया गया। उन्हें प्रथम रमेश चंद्र झा स्मृति सम्मान दिया गया। स्वर्गीय रमेशचंद्र झा एक स्वाधीनता सेनानी और बिहार के चर्चित गीतकार-उपन्यासकार थे।

निर्णायक मंडल के सदस्यों वरिष्ठ पत्रकार श्री अरविंद मोहन, श्री अतुल सिन्हा और श्री अनुरंजन झा के लिए भी कृतज्ञता, जिन्होंने हमें इस महत्वपूर्ण शुरुआत में शामिल किया। साथ ही मोतिहारी और बेतिया के अपने उन तमाम भाइयों-बहनों का भी शुक्रिया, जिन्होंने दो दिन तक "ठगों" की इस दुनिया में मुझे "सगों" से भी बढ़कर स्नेह दिया।

विडंबना

(10 मार्च 2016)

वे रोज़-रोज़ नूसन्स (nuisance) क्रिएट करें।
तथ्यों के साथ बलात्कार करें।
ख़ुद महिलाओं से उद्दंडता करें, पर सेना के जवानों को बलात्कारी बताएं।
बार-बार लोगों की भावनाएं आहत करें।
जातिवाद और सांप्रदायिकता को हवा देने की कोशिश करें।
ज़मानत को उकसाऊ भाषण देने का लाइसेंस समझ लें।
अदालत की हिदायतों की अनदेखी करें।
कानून के छिद्रों का फ़ायदा उठाएं।
देश-विरोधी ताकतों के इशारे पर खेलें और सबूत न होने की आड़ लें।
राजनीति और इतिहास के बारे में अपने अधकचरे ज्ञान को अंतिम समझ लें।
अन्य विचारों के लिए असहिष्णुता और नफ़रत दिखाएं।

फिर भी उन्हें कोई छू दे, तो हंगामा।
कोई कुछ कह दे, तो बवाल।
कोई उंगली उठा दे, तो जनसंघी।
उनके साथ कुछ भी हो, उसके लिए उनका ख़ुद का व्यवहार दोषी नहीं।
देश की पुलिस और सरकार उनकी सुरक्षा में पगलाई फिरे।

मीडिया के दुलारे हैं वे।
अलगाववादियों और नक्सलियों के प्यारे हैं वे।
सभी सवालों से ऊपर हैं वे।
लोग कहते हैं कि देश का भविष्य हैं वे।
पर मालूम नहीं... देश के किस टुकड़े का भविष्य हैं वे!

खलनायक ही बन गए हैं मीडिया के नायक!

(11 मार्च 2016)

अब राज ठाकरे, अरविंद केजरीवाल, सोमनाथ भारती, कन्हैया, उमर ख़ालिद, साक्षी महाराज, योगी आदित्यनाथ, साध्वी प्राची, निरंजन ज्योति, संगीत सोम, आज़म ख़ान, अबू आज़मी, असदुद्दीन औबैसी, अकबरुद्दीन ओबैसी जैसों का ही ज़माना है। सोच, व्यवहार और बयानों में जितना नीचे गिरोगे, सियासत में उतना ऊपर उठोगे।

टीआरपी और रीडरशिप लोलुप मीडिया को सनसनी चाहिए, उन्माद चाहिए, कट्टरता चाहिए, जातिवाद चाहिए, सांप्रदायिकता चाहिए, झगड़ा चाहिए, बंटवारा चाहिए, दंगा चाहिए, गंदगी चाहिए, कीचड़ चाहिए, नंगई चाहिए, निर्लज्जता चाहिए, घिन चाहिए, उबकाई चाहिए, उल्टी चाहिए... इसलिए उल्टी बातें करने वाले सभी खलनायक उसके नायक बन गए हैं।

वदन बेचने वाली स्त्री प्रॉस्टीट्यूट कही जाती है। फिर ईमान बेचने वाले मीडिया को लोग अगर प्रेस्टीट्यूट कहने लगे हैं, तो क्या ग़लत करते हैं? जिन लोगों का बहिष्कार होना चाहिए, वे लोग सारे पन्ने, सारा एयरटाइम लूट रहे हैं। संपादकों की बुद्धि बिला गई है, आत्मा का अपहरण हो गया है, संवेदना सूख गई है, सोच को लकवा मार गया है।

हमारे मीडिया के भीतर आपस में ही कुत्ते-बिल्लियों जैसे झगड़े छिड़ गए हैं। संपादकगण एक-दूसरे की छीछालेदर करने में मशगूल हैं। जनपक्षधरता को तिलांजलि देकर हमने सियासी पक्षपात की नीति अपना ली है। मीडिया एकता कब की ख़त्म हो चुकी है। कलम के सिपाहियों की ऐसी गिरावट अफ़सोसनाक, ख़तरनाक और दुर्भाग्यपूर्ण है।

अब दुस्साहसी मां-बाप ही अपनी बेटियों को भेजेंगे जेएनयू!

(13 मार्च 2013)

अगले सत्र से जेएनयू में प्रवेश लेने वाले छात्रों की गुणवत्ता में और खासकर लड़कियों की संख्या में खासी गिरावट आ सकती है. पिछले एक महीने में ऐसे कई अभिभावकों से बातचीत हुई, जो अपनी बेटियों को उच्च-शिक्षा के लिए किसी अच्छी यूनिवर्सिटी में भेजना चाहते हैं, लेकिन जेएनयू का नाम आते ही वे कांपने लगते हैं.

दरअसल जेएनयू के भीतर जिस तरह की गतिविधियां चल रही हैं और जैसी तस्वीरें वहां से बाहर आ रही हैं, उन्हें देखते हुए आम अभिभावकों में गहरी चिंता है. खासकर कुछ सियासी दलों और मीडिया के एक हिस्से द्वारा जिस तरह से वहां के हर गलत को सही ठहराने की कोशिश हो रही है, उससे उन्हें यह आश्वासन भी नहीं मिल पा रहा कि निकट भविष्य में वहां सब कुछ ठीक हो जाएगा.

एक अभिभावक ने कटाक्ष करते हुए कहा कि बेटियां “दुर्गा” सरीखी शक्ति-स्वरूपा होती हैं, लेकिन कानून के राज में आज वे “महिषासुरों” का “वध” भी नहीं कर सकतीं. और तो और, अभिव्यक्ति की “आज़ादी” की आड़ में “महिषासुरों” द्वारा किए जा रहे तांडवों पर उंगली भी नहीं उठा सकतीं. विशेष परिस्थितियों में उन्हें समय पर पुलिस की यथोचित मदद भी शायद ही मिल पाए, क्योंकि विश्वविद्यालय प्रशासन तो छोड़िए... कैम्पस में घुसने, किसी को हिरासत में लेने या किसी के खिलाफ जांच शुरू करने के लिए पुलिस को पहले राजनीतिक दलों और मीडिया से भी अप्रूवल लेना होगा.

उक्त अभिभावक ने कहा कि जेएनयू से बाहर अपराध की घटनाएं होने पर पहले एफआईआर होती है, फिर आरोपी अरेस्ट किये जा सकते हैं, फिर जांच होती है, फिर आरोप सही या गलत साबित होते हैं. लेकिन जेएनयू के भीतर हुए अपराध के मामलों में एफआईआर और गिरफ्तारी से पहले पुलिस को ऐसे निर्णायक सबूत जुटाने होंगे, जो निचली अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक अकाट्य हों और जो कश्मीरी अलगाववादियों से लेकर पाकिस्तान तक सबको निर्विवाद रूप से मान्य हों.

उन्होंने कहा कि जेएनयू के भीतर हुए अपराध के मामलों में किसी भी जांच एजेंसी के लिए सबूत जुटाना भी बालू से तेल निकालने के बराबर है. उदाहरण के लिए, पुलिस अगर कोई वीडियो या तस्वीर पेश करेगी, तो पहले तो “महिषासुर-पक्ष” उसका डॉक्टर्ड संस्करण लाकर उसमें “दुर्गा-पक्ष” की ही संलिप्तता साबित करने की कोशिश करेगा. फिर जब वह संलिप्तता साबित नहीं हो पाएगी, तो वह हल्ला मचाएगा कि “दुर्गा-पक्ष” ने ही वीडियो/तस्वीरों में डॉक्टरिंग की है. इतना ही नहीं, “महिषासुर-पक्ष” द्वारा वीडियो और तस्वीरों की डॉक्टरिंग एक नई क्रांति का आगाज मानी जाएगी.

उनके मुताबिक, जब तक जेएनयू में अघोषित रूप से धारा 370 या उससे भी अधिक तगड़ा कोई कानून लागू है और उसे “स्पेशल स्टेट्स” हासिल है, तब तक “महिषासुर-मंडली” के बीच अपनी बेटियों को भेजना “भ्रूण-हत्या” से भी बड़ा अपराध है. जिन्हें अपनी बेटियों से वैर होगा, वही बिना किसी हथियार के उन्हें समस्त हथियारों से लैस “महिषासुर-मंडली” से जूझने के लिए भेज सकते हैं.

एक अन्य अभिभावक से हुई बातचीत में दूसरे किस्म की चिंताएं उभर कर सामने आईं. उनका कहना था कि जब “प्रगतिशीलता” और “स्त्री-पुरुष बराबरी” का पैमाना “साथ-साथ शराब का पैमाना छलकाने” और “सेक्स-उच्छृंखलता” को ही मान लिया जाए, तो हमारे लिए इस बात की गुंजाइश भी कहां बचती है कि ऐसे संस्थान में हम अपने बच्चों को पढ़ने के लिए भेजें? उनका कहना था कि बेटियां तो दूर, अपने बेटों को भी जेएनयू भेजने से पहले वे हजार बार सोचेंगे.

कई अभिभावक जेएनयू की “डफली टोली” से भी आक्रांत दिखे. उन्हें देखकर उनके जेहन में जंगलों में पेड़ों की फुनगियों पर बंदूक संभाले माओवादियों और नक्सलियों की छवि घूमने लगती है. उनमें से एक ने कहा कि “डफली टोली” जब मुंह ऊपर उठाए आसमान के सभी चांद-तारों पर थूकना स्टार्ट कर देती है, तो उस "बारिश" की चपेट में सिर्फ़ वही नहीं आती, बल्कि आसपास के तमाम लोग भी आ जाते हैं.

“डफली टोली” से आक्रांत एक अन्य अभिभावक ने कहा कि भारत की “बर्बादी” के नारे लगाने वालों और मनुवाद से “आज़ादी” के नारे लगाने वालों की जब धुनें एक हैं, बोल एक हैं, लय एक है, सुर एक है, तो कैसे मान लें कि वे लोग इकट्ठे काम नहीं कर रहे? कैसे मान लें कि देशद्रोह के नारों में कुछ शब्दों का हेर-फेर भर कर देने से कोई राष्ट्रभक्त क्रांतिकारी हो जाएगा?

उन्होंने कहा कि भारत की “बर्बादी” चाहने वाले अगर मनुवाद से “आज़ादी” चाहने वालों के साथ खड़े दिखें और मनुवाद से “आज़ादी” चाहने वाले अगर भारत की “बर्बादी” चाहने वालों के साथ खड़े दिखें, तो क्या फर्क पड़ता है कि किसने कौन-से नारे लगाए और किसने कौन-से नारे नहीं लगाए? इससे तो इतना ही समझ आता है कि दोनों का मकसद देश को तोड़ना है और एक ही गुट, एक ही विचार के लोग देश को तोड़ने के लिए अलग-अलग हथियारों का इस्तेमाल कर रहे हैं. भौगोलिक विभाजन को बढ़ावा देने के लिए भारत की “बर्बादी” के नारे लगाए जा रहे हैं और जातीय विभाजन को बढ़ावा देने के लिए मनुवाद से “आज़ादी” के नारे लगाए जा रहे हैं.

कई अभिभावकों ने साफ़-साफ़ यह आशंका ज़ाहिर की कि वहां पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई, आतंकवादी संगठनों, कश्मीरी अलगाववादियों और माओवादियों का पैसा आ रहा है, वरना छात्रों और शिक्षकों के ऐसे विचार का कोई कारण समझ नहीं आता. यह पैसा किस रूप में आ रहा है और कितनी मात्रा में आ रहा है, इसकी जांच होनी चाहिए. मुमकिन है कि कई छात्र सिर्फ़ पॉकेट खर्च, शराब की बोतलें और सेक्स-उच्छृंखलताओं की आज़ादी मिल जाने भर से रास्ता भटक जाते हों, लेकिन देश-विरोधी ज्ञान बांटने वाले शिक्षक बेहद शातिर होंगे, इससे इनकार नहीं किया जा सकता.

बहरहाल, अनेक अभिभावकों से बातचीत के बाद पूरे जेएनयू विवाद को एक दूसरे परिप्रेक्ष्य में समझने का मौका मिला, जो मीडिया में अब तक हुई चर्चाओं से समझ पाना मुश्किल नहीं, नामुमकिन था.

डिस्क्लेमर- यह लेख पूरी तरह से कुछ अभिभावकों की राय के आधार पर लिखा गया है। निजी तौर पर उन अभिभावकों की राय से मैं पूरी तरह निरपेक्ष हूं। ज़रूरी नहीं कि मैं उनसे सहमत होऊं और यह भी ज़रूरी नहीं कि मैं उनसे असहमत होऊं।

जय भारत! जय पाकिस्तान! जय बांग्लादेश!

(14 मार्च 2016)

जब आप "भारत की बर्बादी के नारे" लगाएं और "पाकिस्तान ज़िंदाबाद" बोलें, तब यह देशद्रोह है। लेकिन अगर आप "भारत ज़िंदाबाद" और "पाकिस्तान ज़िंदाबाद" दोनों साथ-साथ बोलें और दोनों देशों की तरक्की की कामना करें, तो यह इस उप-महाद्वीप में शांति और सौहार्द्र की हमारी आकांक्षा है।

अगर भारत का कोई नागरिक पाकिस्तान जाकर "भारत ज़िंदाबाद" बोले, तो इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है। इसी तरह अगर पाकिस्तान का कोई नागरिक हमारे यहां आकर "पाकिस्तान ज़िंदाबाद" बोले, तो इसमें भी कुछ ग़लत नहीं है। किसी भी देश का नागरिक अपने देश की जय-जय तो कर ही सकता है, चाहे वह किसी भी दूसरे मुल्क में क्यों न चले जाए।

राजनीतिक कारणों से हर बात का बतंगड़ बनाकर या तो हम अपनी नासमझी उजागर करते हैं या फिर अपनी कुटिलता ही दुनिया को दिखाते हैं। रविशंकर के कार्यक्रम में ऐसा कुछ नहीं हुआ, जिसे देशद्रोह की संज्ञा दी जा सके या इसका हवाला देकर उन लोगों की आलोचना की जा सके, जिन्होंने जेएनयू में लगे देशद्रोही नारों का विरोध किया था।

मैं भी "भारत ज़िंदाबाद" के साथ "पाकिस्तान ज़िंदाबाद" और "बांग्लादेश ज़िंदाबाद" बोलना चाहता हूं। आख़िर ख़ून तो हम तीनों का एक ही है और सिर्फ़ बांटने वाली राजनीति के चलते ही हम लोग एक-दूसरे के ख़ून के प्यासे हुए हैं। मेरा तो यहां तक ख्याल है कि आरएसएस भी अगर "अखंड भारत" की बात करता है, तो उसे उन मुल्कों की जय बोलने में दिक्कत नहीं होगी, बशर्ते कि वे भारत-विरोधी कोई गतिविधि न चलाएं।

हालांकि मैं जानता हूं कि ऐसा अब कभी संभव नहीं है, फिर भी ज़रा सोचिए कि अगर किसी दिन भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश- तीनों फिर से एक हो जाएं, तो एकीकृत भारत/अखंड भारत/वृहत भारत निश्चित ही दुनिया का सबसे ताकतवर मुल्क बन जाएगा। अगर उपरोक्त तीनों नामों पर सहमति न बन सके, तो मैं तो उस एकीकृत मुल्क का नाम "हिन्दोस्लां/हिन्दोस्लाम" रखने तक को तैयार हो जाऊंगा।

मेरा मानना है कि भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश- इन तीनों मुल्कों में ज़्यादातर समस्याएं विभाजन की कोख से ही पैदा हुई हैं। जिस दिन तीनों एक हो जाएंगे, उसी दिन से उनके अच्छे दिनों की शुरुआत हो जाएगी, क्योंकि इससे इन मुल्कों में घिनौनी सांप्रदायिक राजनीति का अंत हो जाएगा और हिन्दुओं व मुसलमानों में एकता कायम हो जाएगी।

इतना ही नहीं, एकीकृत भारत में एक तरफ़ जहां भारतीय मुसलमानों का मुख्यधारा से कटे होने का अहसास खत्म हो जाएगा, वहीं पाकिस्तान और बांग्लादेश के मुसलमानों की भी किस्मत चमक जाएगी। उनके बच्चे छाती पर बम बांधकर नहीं मरेंगे, न बच्चों को स्कूल जाने पर गोली मारी जाएगी। उस दिन एकीकृत भारत के हिन्दू भी अधिक प्राउड हिन्दू होंगे।

इसलिए बंटवारे की राजनीति के बीच कहीं से भी अगर कोई ऐसी बात आती है, जिससे भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में एकता की भावना को ताकत मिले, तो हमें उसका स्वागत करना चाहिए, न कि उसपर भी गंदी राजनीति शुरू कर देनी चाहिए।

"फूट डालो, फ्रूट खा लो" की नीति पर चलते हैं पढ़े-लिखे लोग!

(16 मार्च 2016)

कोई अगर "भारत माता की जय" या "वन्दे मातरम्" नहीं बोलता, तो न बोले, पर ऐसा भी न कहे कि मेरी गर्दन पर चाकू रख दोगे, तो भी नहीं बोलूंगा। न ही कोई सचमुच इस बात के लिए उसकी गर्दन पर चाकू रख दे कि बोलोगे कैसे नहीं?

यह सब अपनी-अपनी आस्था के विषय हैं। हिन्दुओं में भी आस्तिक और नास्तिक होते हैं। जो नास्तिक होते हैं, वे किसी देवी-देवता की जय नहीं बोलते, तो क्या उन्हें धर्म और समाज से बाहर कर दिया जाना चाहिए या विधर्मी और असामाजिक मान लिया जाना चाहिए?

अगर हमारे मुस्लिम भाइयों-बहनों की अपनी कुछ धार्मिक मान्यताएं हैं, जिनके चलते वह निराकार एकेश्वरवाद में यकीन रखते हैं और मूर्ति या चित्र रूप में किसी की उपासना नहीं करना चाहते, तो देश के नाम पर ही सही, उनपर ऐसा करने का दबाव नहीं डालना चाहिए।

अगर कोई ये नारे लगाता है कि "भारत तेरी बर्बादी तक जंग रहेगी" या "भारत तेरे टुकड़े होंगे" या "बंदूक के दम पर लेंगे आज़ादी"- तो यह निश्चित रूप से देशद्रोह है। जो उन्हें देशद्रोही नहीं मानकर उनका बचाव और समर्थन करते हैं, मैं उनकी पुरज़ोर निंदा करता हूं।

लेकिन मैं उन लोगों की भी निंदा करता हूं, जो "भारत माता की जय" या "वन्दे मातरम्" नहीं बोलने पर किसी को देशद्रोही घोषित कर देते हैं। मेरे ख्याल से देश के सभी नागरिकों को स्वयं ही यह तय करने दिया जाना चाहिए कि वह अपने मुल्क से किस रूप में मोहब्बत करें।

मुझे सबसे ज़्यादा शिकायत देश के पढ़े-लिखे लोगों से है, जो स्वार्थ के लिए नफ़रत, उन्माद, जातिवाद और सांप्रदायिकता का धंधा कर रहे हैं। पढ़े-लिखे लोग सामूहिक नहीं, व्यक्तिगत फ़ायदे में यकीन रखते हैं, इसलिए वे "फूट डालो, फ्रूट खा लो" की नीति पर चलते हैं।

इसे नियम की तरह तो पेश नहीं किया जा सकता, पर मेरा अनुभव यही है कि पढ़े-लिखे लोग अनपढ़-ग़रीबों की तुलना में अधिक जातिवादी और सांप्रदायिक होते हैं। अगर ये पढ़े-लिखे लोग इतने जातिवादी और सांप्रदायिक न होते, तो ये बुराइयां कब की ख़त्म हो गई होतीं।

इतना ही नहीं, एक अनपढ़-ग़रीब तो इसी मिट्टी में पैदा होता है और इसी की सेवा करते हुए इसी में मिट जाता है। लेकिन एक पढ़ा-लिखा आदमी जैसे ही थोड़ा सक्षम हो जाता है, न सिर्फ़ दूसरे देशों में जा बसने का सपना देखने लगता है, बल्कि बात-बात पर देश बांटने, देश तोड़ने या देश छोड़ने की धमकी भी देने लगता है।

उदाहरण के लिए, आपने विद्वान लेखक यूआर अनंतमूर्ति को देश छोड़ने की धमकी देते सुना, लेकिन क्या कभी किसी अनपढ़-ग़रीब हिन्दू को ऐसी धमकी देते सुना? इसी तरह, आपने विद्वान अभिनेता आमिर ख़ान को भी देश छोड़ने की धमकी देते सुना, पर क्या किसी अनपढ़-ग़रीब मुसलमान को ऐसी धमकी देते सुना?

हमारे पढ़े-लिखे लोग अन्य तरीकों से भी देश की जड़ें खोखली करने में जुटे हैं। भ्रष्टाचार क्या है? अगर इससे देश को नुकसान पहुंचता है, तो क्या यह देशघात नहीं है? और अगर यह देशघात है, तो यह कौन कर रहा है इस मुल्क में?

इसलिए बात हिन्दू-मुसलमान की है ही नहीं। भारत का हर अनपढ़-ग़रीब हिन्दू और मुसलमान देशभक्त है और इसी देश में जीने-मरने की तमन्ना रखता है। यह डिवीज़न और डिस्ट्रक्शन वाला कीड़ा तो दोनों समुदायों के पढ़े-लिखे-सक्षम लोगों के दिमाग में है!


इसका एक निष्कर्ष यह भी है कि प्रॉब्लम हमारी शिक्षा-व्यवस्था में ही है! इसलिए दिल्ली हाई कोर्ट की जज प्रतिभा रानी ने सर्जरी वाली जो बात कही थी, मेरे ख्याल से उसकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत हमारी शिक्षा-व्यवस्था में ही है। पढ़े-लिखे लोगो... शर्म करो।