(29 अक्टूबर 2015)
चीन में यह भी कम्युनिस्ट ही तय करते हैं कि लोग कितने बच्चे पैदा करें। वहां की कम्युनिस्ट सरकार ने 36 साल बाद अपने नागरिकों को दो बच्चे पैदा करने की इजाज़त दी है। वहां पहले एक ही बच्चा पैदा करने की इजाज़त थी। दंपती दूसरा बच्चा तभी पैदा कर सकते थे, जब पहली संतान लड़की हो।
अगर भारत में कोई सरकार ऐसी पाबंदी लगा दे, तो क्या होगा? सिद्धारमैया जैसे कांग्रेसी मुख्यमंत्री कहेंगे कि "अच्छा... तुम कौन होते हो मुझे एक बच्चे तक रोकने वाले? अब तो मैं कम से कम दस बच्चे पैदा करूंगा... वो भी उम्र की परवाह किये बिना।"
आख़िर बीफ पर उनका बयान ऐसा ही है न... "अब तक तो नहीं खाता था, लेकिन अब ज़रूर खाऊंगा।" हरियाणा के मुख्यमंत्री खट्टर ने जो कहा, उसकी निंदा तो हो चुकी, लेकिन कर्नाटक के मुख्यमंत्री के बयान पर सोनिया गांधी की चुप्पी क्या बताती है? अब कांग्रेस पार्टी क्या देश और राज्यों में क्रिया और प्रतिक्रिया का सिद्धांंत लागू करना चाहती है?
राजीव गांधी ने तो दिल्ली सिख-संहार के बाद कहा ही था कि "बड़ा पेड़ गिरता है, तो धरती हिलती ही है।" अब दादरी कांड के बाद जब तक पूरे देश को दंगे की आग में नहीं झोंंक दिया जाए, तब तक कांग्रेस पार्टी के सेक्युलर लोगों को चैन कैसे आएगा?
जिन लोगों ने धर्म के आधार पर देश का बंटवारा कबूल किया और आज़ाद भारत में हज़ारों दंगों में लाखों लोगों को मारा, विस्थापित किया और देश में इमरजेंसी लगाई, वे भी आज सरकार बदलते ही बगुला-भगत बन गए हैं।
अभी तो सिर्फ़ कांग्रेसी व वामपंथी लेखक, कलाकार, इतिहासकार और वैज्ञानिक ही पुरस्कार लौटा रहे हैं। बहुत जल्द वे लोग भी अपने बुढ़ापे में असहिष्णुता के ख़िलाफ़ आंदोलन करने निकलने वाले हैं, जिन्होंने जवानी के दिनों में दिल्ली में 3000 सिखों को मार डाला था।
हरिशंकर परसाई ने बिल्कुल सही कहा था कि "जन तीन तरह के होते हैं- सज्जन, दुर्जन और कांग्रेसजन।" कम्युनिस्टों के लिए उन्होंने कुछ लिखा था कि नहीं, पता नहीं। लेकिन अब लगता है कि फ़र्ज़ी सेक्युलरों और नक्सलियों से हमें सहिष्णुता का पाठ सीखना होगा।
आज देश में इतना जो जातिवाद और संप्रदायवाद है, वह कांग्रेस और कम्युनिस्टों की ही देन है। बीजेपी और आरएसएस तो बस सिद्धारमैया जैसे जड़ और प्रतिक्रियावादी लोगों के समूह का नाम है।
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