(15 नवंबर 2015)
आज कुछ चैनलों ने बताया कि कुछ लोग महात्मा गांधी की हत्या करने वाले नाथूराम गोडसे का बलिदान दिवस मना रहे हैं। इन्हीं चैनलों ने यह भी बताया कि कार्यक्रम में 50 लोग भी नहीं जुटे। 125 करोड़ लोगों के देश में जिस विचार के लिए 50 लोग भी नहीं जुटे, उसे सारे चैनलों ने दिन भर अपनी प्रमुख हेडलाइंस में जगह दी।
ये लोग पहले भी गोडसे का बलिदान दिवस मनाते रहे हैं, लेकिन बीजेपी सरकार बनने से पहले कभी किसी चैनल ने उसे कवरेज नहीं दिया, न कांग्रेस ने इनके खिलाफ मोर्चा निकाला। लेकिन इस बार जिस कार्यक्रम में 50 लोग भी नहीं जुटे, उसके विरोध में सैकड़ों कांग्रेसियों ने मोर्चा निकाला।
ऐसा भी नहीं है कि सरकार या आरएसएस के किसी ज़िम्मेदार व्यक्ति ने गोडसे-भक्तों का समर्थन किया हो। इन्हीं चैनलों पर मनमोहन वैद्य का बयान भी देखा। वे साफ़ कह रहे थे कि ऐसा करने वाले लोग देश और हिन्दुत्व को नुकसान पहुंचा रहे हैं। देश के किसी भी ज़िम्मेदार व्यक्ति ने गोडसे के समर्थन में कुछ नहीं कहा।
फिर इन मुट्ठी भर लोगों को इस साल इतनी तरजीह दिए जाने के पीछे का एजेंडा क्या है? वे कौन लोग हैं, जो मीडिया के कंधे पर रखकर अपनी बंदूकें चला रहे हैं? और इन बंदूकबाज़ों का असली मकसद क्या है? क्या वे जबरन यह स्थापित करना चाहते हैं कि डेढ़ साल में अचानक इस देश में हिन्दू-असहिष्णुता इतनी बढ़ गई है कि लोग गांधी को छोड़कर गोडसे के पीछे चल पड़े हैं?
जवाब आप लोग भी तलाशें। पर मुझे तो लगता है कि ऐसे आयोजनों, जिनमें न कोई दम है, न जिन्हें कोई समर्थन है, उन्हें इतनी तरजीह देना भी एक प्रकार से गांधी का अपमान करना है। जो लोग बंद कमरे में कुंठित होते रहते थे, उन्हें इतनी पब्लिसिटी मिल गई, और क्या चाहिए? इतना ही नहीं, आपने यह स्थापित किया कि इस देश में गांधी की स्वीकार्यता निर्विवाद नहीं है।
क्या 2015 में इसे ही ज़िम्मेदार पत्रकारिता और ज़िम्मेदार राजनीति कहते हैं? आज गोडसे-भक्त कह रहे होंगे- थैंक्यू मीडिया... थैंक्यू कांग्रेस!
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