Thursday, November 19, 2015

सनसनी और उन्माद बेचने वालों से सावधान!

(1 अक्टूबर 2015)
वे भी उन्मादी थे, जिन्होंने दादरी में गोमांस खाने के शक में एक व्यक्ति की हत्या कर दी। और वे भी शातिर हैं, जो अब इसपर राजनीति करके देश के अल्पसंख्यकों में असुरक्षा की भावना और बहुसंख्यकों के ख़िलाफ़ गुस्सा पैदा करना चाहते है।
मुझे संदेह है कि बिहार-चुनाव को प्रभावित करने के मकसद से ही दिल्ली के पास के इलाके में ऐसी घटना कराई गई है, ताकि मीडिया में इसे पूरी पब्लिसिटी मिले और बुद्धिजीवियों का इसपर राष्ट्रव्यापी विलाप हो। यह घटना दोनों में से किसी भी एक पक्ष के इशारे पर हुई हो सकती है।
समझदार लोगों का काम तो यह होना चाहिए कि जहां दो संप्रदायों का मामला हो भी, वहां भी संयमित रहें और फिजूल की टिप्पणियों से बचें, पर यहां तो जहां ऐसा नहीं भी होता है, वहां भी वैसा ही रंग देने की कोशिश की जाती है।
बुद्धिजीवी-धर्म क्या है- आग में पानी डालना या आग में घी डालना? दरअसल देश में दो ताकतवर "परिवार" हैं। एक "संघ परिवार।" दूसरा "संघ-विरोधी परिवार।" और साम्प्रदायिकता इन दोनों परिवारों को सूट करती है।
दोनों परिवारों की असली फ़ौज वे अपराधी या उन्मादी नहीं हैं, जो कही मार-काट करते हैं, बल्कि उनकी असली फ़ौज वे बुद्धिजीवी हैं, जो बात का बतंगड़ बनाए रहते हैं और देश के दो सबसे बड़े समुदायों में झगड़ा लगाए रखते हैं।
"संघ-परिवार" से ठेका पाए बुद्धिजीवी बहुसख्यकों के दिमाग में यह भरते रहते हैं कि अल्पसंख्यकों का बड़ा "तुष्टीकरण" हो रहा है। हालांकि मैं आज तक नहीं समझ पाया कि अगर "तुष्टीकरण" हो रहा, तो "पुष्टीकरण" क्यों नहीं हो रहा?
इसी तरह "संघ-विरोधी परिवार" से ठेका पाए बुद्धिजीवी वन-प्वाइंट एजेंडा बनाकर अल्पसंख्यकों को डराने और उनमें असुरक्षा की भावना भड़काने का काम करते हैं। मकसद यह होता है कि हमारे आकाओं से छिटकने के बारे में सोचना भी मत, वरना इस देश में दूसरे धड़े के लोग तुम्हें निगल जाएंगे।
दोनों धड़े के बुद्धिजीवी अपने-अपने आकाओं के राजनीतिक फायदे के हिसाब से टार्गेट वोटरों का ध्रुवीकरण करने में जुटे रहते हैं। ज़ाहिर है, यह ध्रुवीकरण जब भी होता है, दोनों तरफ होता है। इससे देश में बेचैनी का वातावरण बना रहता है।
इसलिए मेरा ख्याल है कि जनता को सिर्फ़ राजनीतिक दलों से ही नहीं, बिके हुए बुद्धिजीवियों की फ़ौज से भी सावधान रहने की ज़रूरत है। चूंकि आजकल इन दोनों का सबसे बड़ा औजार मीडिया है, इसलिए मीडिया से भी सावधान रहने की ज़रूरत है।
वो ज़माना गया, जब मीडिया में आने वाली हर बात पर आप आंखें मूंदकर भरोसा कर सकते थे। अब हर बात पर आंखें खोलकर संदेह कीजिए, क्योंकि ज़रूरी नही कि मीडिया जो कहानी बता रहा है, सच ही हो। टैगलाइन में सच का ढिंढोरा पीटना इस बात की गारंटी नहीं है कि सचमुच वे सच के पुजारी हैं।
आज के मीडिया का अधिकांश कॉन्टेन्ट बिका हुआ है और किसी न किसी के एजेंडे से संचालित है। ठेके पर चल रहा है मीडिया। इसलिए झूठ, अफवाह, अंधविश्वास, सनसनी और उन्माद बेचने वालों के चक्कर में फंसे तो अपना नुकसान ख़ुद करेंगे। भावनाओं पर काबू रखिए और अपना काम करते रहिए।

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