Thursday, November 19, 2015

हे बुद्धिजीवियो, कम से कम आप तो अपनी दुकान में नफ़रत का सामान मत बेचिए

(30 अक्टूबर 2015)
देश में इस वक़्त गंदी राजनीति हो रही है। कई तरह के अभावों, चुनौतियों और विषमताओं से जूझती यहां की बड़ी आबादी को सबसे पहले रोटी, रोज़गार, घर, इलाज, शिक्षा, बिजली, पानी और सड़क जैसी बुनियादी चीज़ें चाहिए, लेकिन सत्तालोलुप राजनीतिक दलों को सिर्फ़ सत्ता की पड़ी है। एक-दूसरे पर वे ऐसे झपट रहे हैं, जैसे कहीं एक रोटी फेंक दो, तो गली के सारे भौं-भौं करने वाले जीव एक-दूसरे को नोंचने-खसोटने लगते हैं। बिहार चुनाव में दोनों पक्षों की भाषा इसका सबूत है।
जहां तक मोदी सरकार का सवाल है, मैं मानता हूं कि देश के लोगों के अच्छे दिन नहीं आए। लेकिन बुरे दिन आ गए, यह भी नहीं मानता। लोकसभा चुनाव में मोदी ने बड़े-बड़े वादे किए थे। डेढ़ साल में वह उन वादों पर खरा नहीं उतर पाए हैं। विपक्ष और बुद्धिजीवी अगर उन्हें इन्हीं मुद्दों पर घेरें, तो जनता का भला होगा और सरकार पर एक स्वस्थ लोकतांत्रिक दबाव बनेगा। लेकिन सांप्रदायिक आधार पर देश में बंटवारे की कोशिश करना जनता के असली मुद्दे उठाने में विपक्ष और बुद्धिजीवियों की विफलता है।
कलबुर्गी हत्याकांड के बाद लेखकों द्वारा पुरस्कार लौटाए जाने का मैंने समर्थन किया था, लेकिन दादरी कांड के बाद जिस रूप में और जिस पैमाने पर विरोध उभरा है, देश की ज़मीनी स्थितियों से इसका कोई लेना-देना नहीं है। देखा जाए, तो एक तर्कवादी (कलबुर्गी) की हत्या से विचलित ये बुद्धिजीवी तर्क की बात ही नहीं कर रहे। वह उसी तरह की भावनाओं में बहे जा रहे हैं, जिनका वे विरोध करते हैं, जो तर्कों को ख़ारिज करती है, असहमति के लिए स्पेस नहीं छोड़ती और असहिष्णुता को जन्म देती है।
दादरी कांड दुर्भाग्यपूर्ण था, लेकिन कानून उसे डील कर सकता था और कर रहा है। आठ लोग गिरफ्तार किए गए। साथ ही, यूपी सरकार ने मृतक के परिजनों को इंसाफ़ का भरोसा और प्रचलन से बढ़-चढ़कर मुआवज़ा भी दिया है। कहीं आग लग जाए, तो समझदार लोगों का काम उसपर पानी डालना होता है, न कि पेट्रोल छिड़कना। लेकिन देश के पढ़े-लिखे लोगों ने बिहार-चुनाव को प्रभावित करने के लिए दादरी कांड को सांप्रदायिक रंग दिया। मेरा एतराज बस इतना है, क्योंकि चुनाव तो निकल जाएगा, लेकिन देश के हिन्दुओं और मुसलमानों में लंबे समय के लिए विभाजन की एक लकीर छोड़ जाएगा।
भारत 125 करोड़ लोगों का बहुधर्मी, बहुजातीय, बहुभाषी और क्षेत्रीय विविधताओं से भरा विशाल देश है। इतने बड़े देश में तरह-तरह के अपराध भी होते हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक 2014 में संज्ञेय अपराधों की कुल 72,29,193 (बहत्तर लाख उनतीस हज़ार एक सौ तिरानवे) घटनाएं हुईं, जिनमें हत्या की 33,981 (तैतीस हज़ार नौ सौ इक्यासी) घटनाएं शामिल हैं। यानी देश में हर रोज़ हत्या की 93 घटनाएं हो रही हैं।
ऐसा भी नहीं है कि ये सारे अपराध मोदी के पीएम बनने के बाद से हो रहे हैं। 2010 में हत्या की कुल 33,335 (तैंतीस हज़ार तीन सौ पैंतीस), 2011 में 34,305 (चौंतीस हज़ार तीन सौ पांच), 2012 में 34,434 (चौंतीस हज़ार चार सौ चौंतीस) और 2013 में 33,201 (तैंतीस हज़ार दो सौ एक) घटनाएं हुईं। यह भी तथ्य है कि आबादी बढ़ते जाने के साथ ऐसी घटनाओं में भी इज़ाफ़ा होता जाता है। 1953 में हत्या की सिर्फ़ 9,802 घटनाएं दर्ज की गई थीं। यानी जिस अनुपात में आबादी बढ़ी, करीब-करीब उसी अनुपात में घटनाएं बढ़ गईं।
मेरी नज़र में दादरी की घटना भी देश में हर रोज़ होने वाली हत्या की 93 घटनाओं में से एक थी। राजनीतिक दल, मीडिया और बुद्धिजीवी चाहें तो उनमें से हर घटना को अलग-अलग रंग दे सकते हैं। जिस घटना को वे ज़ोर-शोर से उठा देंगे, वही घटना प्रलय जैसी लगने लगेगी। यह सही है कि राजनीतिक दल, मीडिया और बुद्धिजीवी हर रोज़ 93 ऐसी घटनाओं को बराबर दम-ख्म के साथ उठाएं, यह संभव नहीं। इसलिए उनके सेलेक्टिव होने पर भी मुझे एतराज नहीं है। मेरा सिर्फ़ इतना कहना है कि सेलेक्टिव होइए, लेकिन उन्हें कोई और रंग मत दीजिए और कानून को काम करने दीजिए।
किसी भी तथाकथित दंगे की शुरुआत सामान्य आपराधिक घटनाओं से ही होती है। जैसे- हत्या, छेड़खानी, बलात्कार, चोरी, मारपीट, गाली-गलौज, अफवाह इत्यादि। अगर इन्हें इसी नज़रिए से देखा जाए, तो कानून को काम करने में आसानी होगी, लेकिन जब आप इसे सांप्रदायिक, जातीय, क्षेत्रीय या भाषाई रंग दे देते हैं, तो मुश्किल खड़ी हो जाती है। एक घटना के पीछे और कई घटनाएं हो जाती हैं। एक घटना से हज़ारों-लाखों-करोड़ों लोगों के मन में दीवार खड़ी हो जाती है।
आज असहिष्णुता के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाले लोग क्या इतने सहिष्णु नहीं हो सकते कि अपराध की हर घटना को जाति, धर्म, क्षेत्र या भाषा से न जोड़ने लग जाएं। सामान्य आपराधिक घटनाओं को जाति, धर्म, क्षेत्र या भाषा से जोड़ना भी एक किस्म की असहिष्णुता है। बल्कि यह कहीं ज़्यादा ख़तरनाक असहिष्णुता है।
“एक भीड़ ने एक अफवाह के आधार पर एक व्यक्ति की पीट-पीटकर हत्या कर दी।“
दादरी में कानून के काम करने के लिए इतना ही पर्याप्त था।
लेकिन आपने क्या किया? आपने कहा कि
“हिन्दुओं की भीड़ ने गोमांस पकाए जाने की अफवाह पर एक मुसलमान की पीट-पीटकर हत्या कर दी।“
देखिए कि कितना फ़र्क़ आ गया। करोड़ों लोगों के दिलों में आग लग गई। अगर आज ही हिन्दुओं और मुसलमानों को लड़वाकर इस देश को हिन्दू या मुस्लिम राष्ट्र घोषित करा देना है, तब तो ठीक। लेकिन अगर दोनों समुदायों को प्रेम और भाईचारे से रहना है, तो सोचिए कि आपने फ़िज़ाओं में यह ज़हर क्यों घोला? इससे फ़ायदा किसका हुआ और नुकसान किसका हुआ? मेरे ख्याल से, फायदा विभिन्न राजनीतिक दलों और बुद्धिजीवियों का हुआ। किसी को वोट मिला। किसी को पब्लिसिटी मिली। लेकिन नुकसान जनता का हो गया।
जहां पूरे देश में लोगों का सांप्रदायिक आधार पर बंटवारा हुआ, वहीं बिहार चुनाव में मुद्दों पर बात ही नहीं हो पाई। उन अल्पसंख्यकों के मुद्दों पर भी चर्चा नहीं हो पाई, जिनके नाम पर इतना बड़ा हौवा खड़ा किया गया। बिहार के सीमांचल के मुसलमान देश के सबसे पिछड़े मुसलमान हैं। किसने की उनकी चिंता? आप कहते हैं कि बीजेपी सत्ता में आ जाएगी, तो उन्हें खा जाएगी। कहिए। लेकिन यह भी तो पूछिए कि 60 साल राज करके कांग्रेस, लालू और नीतीश ने उन्हें क्या दे दिया? एकतरफा बातों से लोगों का भरोसा भी टूटता है, ध्रुवीकरण भी होता है और उनकी कट्टरता भी बढ़ती है।
पूरे चुनाव में बीफ, गोमांस, दादरी, नरभक्षी, ब्रह्मपिशाच, शैतान, हिन्दू, मुसलमान, अगड़ा, पिछड़ा, आदमी, कुत्ता, भारत, पाकिस्तान- यही होता रह गया। जब राजनीतिक दल असली मुद्दों से पलायन करें, तो बुद्धिजीवियों का फ़र्ज़ होता है कि वे उन्हें बार-बार उन मुद्दों पर लौटने के लिए बाध्य करें। लेकिन यहां तो बुद्धिजीवियों ने ही अपना कंधा देकर असली मुद्दों की अर्थी उठवा दी। अब जिन बुद्धिजीवियों के कंधों का इस्तेमाल कर राजनीतिक दलों ने ऐसा करने में कामयाबी हासिल कर ली, क्या उनका हम प्रशस्ति-गान करें? चुनाव पांच साल बाद आता है। एक अखलाक के बारे में करोड़ों ने सोचा, लेकिन करोड़ों बिहारियों के बारे में किसी एक ने भी सोचा?
सेक्युलरिज़्म की रक्षा हिन्दू-मुसलमान करने से नहीं होगी। निरपेक्ष होने से होगी। सच्चाई यह है कि न हिन्दू मुसलमान को मारता है, न मुसलमान हिन्दू को मारता है। जहां जो ताकतवर होता है, वह अपने से कमज़ोरों को मारता है। आरएसएस के लोगों की तरह भारत के ज़िक्र में मैं पाकिस्तान, बांग्लादेश या दूसरे मुस्लिम राष्ट्रों की मिसालें नहीं दूंगा। लेकिन आपके अपने देश के भीतर कश्मीर में क्या हुआ? वहां मुसलमान ताकतवर थे और हिन्दू कमज़ोर। ताकतवर ने कमज़ोर को मार भगाया। साढ़े तीन लाख हिन्दू आज 25 साल के बाद भी घाटी से विस्थापित हैं। यह आज़ाद भारत का सबसे बड़ा विस्थापन है।
इसलिए अगर हिन्दू-बहुल इलाकों में मुसलमान डरते हैं, तो मुस्लिम-बहुल इलाकों में हिन्दू भी डरते हैं। अगर हम इस देश में सच्चे सेक्युलरिज़्म की स्थापना करना चाहते हैं, तो दोनों तरह के इलाकों में यह डर ख़त्म करना होगा। ऐसी व्यवस्था कायम करनी होगी, जिसमें कोई ताकतवर अपने से कमज़ोर को न मार सके। इंसानियत को आधार बनाकर कानून का इकबाल कायम करने से ही हिंसा की यह सोच ख़त्म होगी। लेकिन हम ऐसा करने का प्रयास नहीं करेंगे, क्योंकि हमें तो हिन्दू और मुसलमान की लड़ाई को ज़िंदा रखना है।
इसलिए हे बुद्धिजीवियो, राजनीतिक दल तो “फूट डालो और राज करो” वाली अंग्रेज़ों की नीति पर चल ही रहे हैं, कम से कम आप तो अपनी दुकान में नफ़रत का सामान मत बेचिए।

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