(8 अक्टूबर 2015)
कई "महान" लोग पहले पुरस्कार लेने के लिए राजनीति करते हैं, फिर राजनीति करते हुए पुरस्कार लौटा भी देते हैं। ऐसे माहौल में अच्छा ही है कि मैं किसी दौड़ में नहीं हूं। पिछले 18-19 साल से, यानी बीस की ही उम्र से, जबसे समझने-बूझने की शक्ति आई, किसी पुरस्कार के लिए प्रविष्टि नहीं भेजी। यहां तक कि किताबें भी छपीं, लोगों ने तारीफ़ भी की, प्रकाशकों ने कहा कि पुरस्कार से किताबों की मांग बढ़ती है, फिर भी कहीं आवेदन नहीं दिया। पुरस्कार नहीं मिलता, तो चर्चा भी कम होती है, लेकिन मुझे यह ज़्यादा श्रेयस्कर लगता है।
बात कहने और सुनने में बुरी लग सकती है, लेकिन इसे मिसाल के ही तौर पर समझें। किसी से किसी की तुलना का मेरा इरादा नहीं है। जैसे आप कहीं रोटी का एक टुकड़ा फेंक देते हैं और उसके बाद गली के सारे कुत्ते जिस तरह से एक साथ उस पर झपटते हैं, झांव-झांव करते हैं और एक-दूसरे को काटने दौड़ते हैं, ठीक उसी तरह हिन्दी में पुरस्कारों के लिए होता है। यहां मिलने वाला हर पुरस्कार इस बात की गारंटी तो नहीं है कि आप अच्छे लेखक हैं ही, लेकिन इस बात का प्रमाणपत्र ज़रूर है कि आप एक बेहद चालाक किस्म के रैकेटियर हैं।
जब माहौल ऐसा हो, तो जो पुरस्कार ले रहा है, पहले तो मुझे उसी पर तरस आती है, फिर लौटाने वालो के बारे में क्या कहूं? मुझे यह पूरी बात ही बेमानी लगती है कि किसे पुरस्कार मिल गया और किसने लौटा दिया।
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