(15 अक्टूबर 2015)
इस देश में मुसलमानों की स्थिति सचमुच विचित्र है। बिके हुए बुद्धिजीवियों की फ़ौज चाहती है कि वह छाती में छुरा भोंकने वालों से बचकर पीठ में छुरा घोंपने वालों की गोद में बैठ जाए, क्योंकि उनकी परिभाषा में छाती में छुरा घोंपने वाले को सांप्रदायिक और पीठ में छुरा घोंपने वाले को धर्म-निरपेक्ष कहा जाता है।
विडम्बना देखिए कि बिहार में बीजेपी को वे वोट दे नहीं सकते, इसलिए उस लालू-नीतीश को वोट देने के लिए मजबूर हैं, जो 25 साल से सत्ता में हैं, लेकिन उन्हें डर, असुरक्षा और पिछड़ेपन के सिवा दिया कुछ नहीं। बिहार के मुसलमान, खासकर सीमांचल के मुसलमान भारत के सबसे वंचित और पिछड़े मुसलमान हैं।
आजकल हज़ार किलोमीटर दूर दादरी में भीड़ द्वारा एक की हत्या से वे आहत हैं, लेकिन अपने बगल में फारबिसगंज में चार साल पहले नीतीश सरकार द्वारा चार मुसलमानों की उस बर्बर हत्या को भूलने के लिए विवश हैं, जिसमें एक गर्भवती औरत और पेट में पल रहे उसके 8 महीने के बच्चे तक को गोली मार दी गयी थी। सात साल के बच्चे को भी मारा गया। इतना ही नहीं, एक अधमरे व्यक्ति के शरीर को पुलिस तब तक बूटों से रौंदती रही थी, जब तक कि वह मर नहीं गया था। उन परिवारों को तो उतना भी इन्साफ नहीं मिला, जितना अख़लाक़ के परिवार को मिला।
उनकी इस विवशता पर तो बस यही कह सकता हूँ-
बुरे फंसे हो मुस्लिम भाई।
आगे कातिल, पीछे कसाई।
बुरे फंसे हो मुस्लिम भाई।
आगे कातिल, पीछे कसाई।
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