कहा जाता है "यथा राजा तथा प्रजा।" जितना सही यह है, उतना ही सही यह भी है कि "यथा प्रजा तथा राजा।" राजा की दुश्चरित्रता प्रजा को भी चरित्र-भ्रष्ट करती है और दुश्चरित्र प्रजा को भी सद्चरित्र राजा की ज़रूरत महसूस नहीं होती है।
हमारे देश और राज्य में आज जिस जातिवाद, सांप्रदायिकता और भ्रष्टाचार का बोलबाला है, वह भी इसीलिए है कि एक तरफ जहां जातिवादी, सांप्रदायिक और भ्रष्ट नेता तरह-तरह के हथकंडों से लोगों में एक-दूसरे के लिए विरोध भरते हैं और उन्हें असली मुद्दों से भटकाते हैं, वहीं जातिवादी, सांप्रदायिक और भ्रष्ट नागरिक भी उन्हीं लोगों को अपना प्रतिनिधि चुनते हैं, जो उन्हीं की तरह बंद सोच का शिकार हो।
बहरहाल, लोकतंत्र हमें यह अधिकार देता है कि हम किसी भी पार्टी या उम्मीदवार का समर्थन करें और उसे वोट दें। लेकिन आम तौर पर हम देखते हैं कि चुनाव में हमारे पास बड़े सीमित विकल्प होते हैं। अक्सर हमारे सामने हमारे मन का उम्मीदवार नहीं होता और मजबूरन हमें उन्ही में से किसी एक को चुनना पड़ता है, जिन्हें मुख्य धारा की राजनीतिक पार्टियों ने टिकट दिया होता है। यानी हम किसी वंश के कीड़े-मकोड़े या फिर किसी धनबली, बाहुबली, जातिवादी, सांप्रदायिक या भ्रष्ट को वोट दे आते हैं।
जिस तरह मौजूदा व्यवस्था हमें सीमित विकल्प देती है, उसी तरह हमारे पास इस व्यवस्था में बदलाव लाने के विकल्प भी सीमित हैं। ऐसा कोई रामबाण नहीं है, जिससे एक झटके में जातिवाद और सांप्रदायकता खत्म हो जाएगी और राजनीतिक दल सकारात्मक राजनीति करने लगें और साफ-सुथरे लोगों को टिकट देने लगें। इसलिए बदलाव चाहने वाली ताकतो को अक्सर विकल्पों में से विकल्प निकालने की योजना पर काम करना होता है।
नोटा भी ऐसी ही सीमित शक्ति वाला एक विकल्प है, लेकिन बड़ी संख्या में इसके इस्तेमाल से कई और विकल्पों के रास्ते खुल सकते हैं। मैंने नोटा को कभी ब्रह्मास्त्र नही बताया। नोटा एक नयी चीज़ है, जो सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर चुनावों में लागू की गई है। ठीक है कि कई लोगों को लगता हो कि नोटा डालने से क्या होगा? कोई न कोई तो फिर भी जीतेगा। वोट बर्बाद हो जाएगा। वगैरह-वगैरह।
मेरे हिसाब से यह सोच सही नहीं है। वास्तव में कोई वोट बर्बाद नहीं होता। अगर वोट बर्बाद होने का कॉन्सेप्ट सही होता, तो हमारे संविधान-निर्माताओं को भारत में द्विदलीय व्यवस्था लागू करनी चाहिए थी, क्योंकि किसी भी चुनाव में कोई एक ही जीतता है और कोई एक ही मुख्य मुकाबले में होता है और दूसरे नंबर पर रहता है। तीसरे, चौथे, पांचवें, छठे और बाद के सारे उम्मीदवारों को दिये वोट इस सोच के मुताबिक बर्बाद हो जाते हैं।
इसलिए जैसे तीसरे, चौथे, पांचवें, छठे और बाद के सारे उम्मीदवारों को दिये वोट का अपना महत्व है, उसी तरह नोटा में दिये गए वोट की भी अपनी सार्थकता है। नोटा वोट से दो फायदे होते हैं। एक यह- कि यह मन के ख़िलाफ़ जाकर किसी को वोट देने की आपकी मजबूरी खत्म कर देता है। दूसरा यह- कि आपको आत्मसंतोष रहता है कि चाहे जिसने जिसका समर्थन किया हो, कम से कम आपने किसी गलत का समर्थन नहीं किया... किसी गलत को गद्दी तक पहुंचाने में कम से कम आपका रोल नहीं है।
और अच्छे से समझिए। अगर किसी चौक-चौराहे पर दो बदमाश झगड़ा कर रहे हों, तो आप उनमें से किसी एक का साथ तो नहीं दे देते? अक्सर गैंगवार होते रहते हैं। आप किसी एक गैंग के पक्ष में झंडा लेकर खड़े तो नहीं हो जाते? वहां आप कहते हैं कि दोनों बदमाश हैं और दोनो गलत है। लेकिन जैसे ही आप चुनाव में जाते हैं, आप कहने लगते हैं कि दोनों बदमाश हैं, फिर भी एक का साथ तो मुझे देना ही पड़ेगा। नोटा... अंतरात्मा के विरुद्ध जाने की आपकी इस मजबूरी को तो कम से कम ख़त्म कर ही देता है!
नोटा में और मतदान नहीं करने में अंतर है। अगर आप मौजूदा व्यवस्था, राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों से चिढ़कर वोट नही डालते हैं, तो वह कही दर्ज नही होता। यह नही माना जाता कि आप नाराज़ हैं, इसलिए वोट नहीं डाला। लेकिन जब आप नोटा में वोट डालेंगे, तो यह दर्ज होगा कि आप नाराज़ हैं। आपके सामने उम्मीदवारों के जितने विकल्प दिये गए, वे आपकी आकांक्षाओं के हिसाब से नहीं थे।
मेरे पिछले वक्तव्य को कुछ साथियों ने ठीक से पढ़ा नहीं। आखिरी पैराग्राफ में मैने साफ़ लिखा- "उम्मीदवार देखो और वोट दो। जहां जो उम्मीदवार अच्छा है उसे जिता दो। बाकी किसी के बेेटे-पोते-भाई-भतीजे-नाती-दामाद-बहू-पतोहू की परवाह मत करो। जहां कोई अच्छा न लगे, डाल दो सारा वोट "नोटा" पर।"
कुछ साथियों ने इसे नेगेटिव सोच और फ्रस्ट्रेशन का नतीजा बताया। अब अगर इससे भी किसी की असहमति है, तो मैं उन लोगो को यही सलाह दूंगा कि आप लोग "अपमाननीय" को "माननीय" बनाते रहें। उदाहरण के लिए, अगर बलात्कारी और डकैत दो विकल्प हों, तो इनमें से जो डकैतों के पराक्रम के मुरीद हैं, वे डकैत को वोट दें और जिन्हें बलात्कारियों के बलात्कार की कथाएं रोमांचक लगती हैं, वे बलात्कारी को वोट दें।
व्यक्तिगत मेरी सोच यही है कि मेरा वोट किसी भी ग़लत के पक्ष में नहीं जाना चाहिए। अगर मेरे वोट के बिना भी जीत-हार का फ़ैसला हो रहा है तो हो जाने दीजिए, सरकार बन रही है तो बन जाने दीजिए। इस देश में बहुत कुछ ऐसा हो रहा है, जिसमें हमारी-आपकी कोई भूमिका नहीं है। इसलिए कम से कम मेरी अतरात्मा मुझे धिक्कारेगी तो नहीं कि मैंने भी उसे ही वोट दे दिया, जिसे मैं पसंद नहीं करता था... कि मैंने भी किसी को वंश बढ़ाने के लिए, किसी को धनबल-बाहुबल बढ़ाने के लिए, किसी को अगड़ा-पिछड़ा करने के लिए, किसी को हिन्दू-मुसलमान करने के लिए अपनी रज़ामंदी दे दी। मेरे वोट की सबसे बड़ी सार्थकता मेरे विचारों की रक्षा में है, न कि किसी "अपमाननीय" को "माननीय" बना देने में।
बाकी मैं मानता हूं कि अभी हमारे बंधु-बांधव नोटा को इसलिए फिजूल मान रहे हैं, क्योंकि उन्होंने इसका उस पैमाने पर इस्तेमाल ही नहीं किया है। ज़रा सोचिए अगर किसी चुनाव क्षेत्र में किसी भी उम्मीदवार से ज़्यादा वोट नोटा को मिले, तो राजनीतिक दलों के कान तो खड़े हो जाएंगे, उनकी बेइज्जती तो होगी, आगे लड़ाई लड़ने का एक आधार तो बनेगा। दोबारा चुनाव का रास्ता तो खुलेगा। राजनीतिक दलों को यह तो समझ में आएगा कि डकैतों और बलात्कारियों जैसा विकल्प देने को जनता अब बर्दाश्त नहीं करेगी।
...और अगर एक से अधिक क्षेत्रों में ऐसा हो जाए, तो सोचिए कितना असर हो सकता है। मेरा कहना है कि नोटा को हल्के में लेने के बजाय एक बार इसका पुरज़ोर इस्तेमाल क्यों नहीं करते हैं हम? फिर करते रहेंगे इसकी ताकत की समीक्षा। नोटा को एक "नेगेटिव वोट" के रूप में नहीं, एक "उम्मीदवार" के रूप में देखिए। फिर आपको समझ आएगा कि नोटा क्या चीज़ है।
जैसे आपके इलाके में अगर 10 उम्मीदवार हैं तो यह मत समझिए कि आपके सामने 10 ही विकल्प हैं। आप यह समझिए कि आपके सामने 11 उम्मीदवार... 11 विकल्प हैं। अगर आपका 11वां विकल्प... 11वां उम्मीदवार... यानी नोटा... बाकी 10 उम्मीदवारों और 10 विकल्पों से अधिक वोट ले आएगा, तो मैं आपको गारंटी देता हूं कि उसी दिन से क्रांति और बदलाव की शुरुआत हो जाएगी।
दिल्ली के लोगों ने मुख्यधारा के राजनीतिक दलों के ख़िलाफ़ एक और राजनीतिक पार्टी... आम आदमी पार्टी खड़ी की। क्या फ़ायदा हुआ? 100 भ्रष्ट पार्टियों के बाद 101वीं भ्रष्ट पार्टी खड़ी हो गई। इसलिए समाधान यह भी नहीं है कि हम रोज़-रोज़ नई-नई पार्टियां खड़ी करते चलें। समाधान यह है कि इन्हीं पार्टियों को ज़िम्मेदार बनाने की कोशिश करे।
सारे झूठे-मक्कारों, ढोंगी-फरेबियों, चोर-उचक्कों, जातिवादियों-सांप्रदायिकों, भ्रष्ट-लुटेरों पर आप भरोसा करते हैं, एक बार मुझपर भी तो भरोसा करके देखें।
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