(28 अक्टूबर 2015)
दुनिया का दादा है मनुष्य। रावण, महिषासुर, शैतान और हैवान है मनुष्य। दूसरे जीवों की जीने की आज़ादी छीनकर अपने खाने-पीने की आज़ादी चाहिए मनुष्य को। दूसरे जीवों का संहार करने की आज़ादी चाहता है मनुष्य। इस आज़ादी में ज़रा भी खलल पड़ने से बौखला जाता है मनुष्य। उसमें और भूखे भेड़िये में फिर कोई अंतर नहीं रह जाता है।
ऐसे ही जीव-रक्त-पिपासु, क्रूर, निर्दयी और राक्षसी प्रवृत्ति वाले हैवान मनुष्यों की वजह से आज इस दुनिया में इतनी हिंसा और आतंकवाद है। अगर इनका वश चले तो ये किसी दिन गरीबों के बच्चों को भी मारकर खाने लगेंगे। हर मांसाहारी मनुष्य में एक सुरेन्द्र कोली मौके की ताक में छिपा बैठा है। होने दीजिए दुनिया की आबादी बीस अरब, फिर हमारी अगली पीढियां देखेंगी कि ऐसे ही मांसाहारियों में कितने सुरेन्द्र कोली छिपे बैठे थे। आज वे कमज़ोर पशु-पक्षियों को मारकर खाने के लिए लड़ रहे हैं, कल वे कमज़ोर मनुष्यों को मारकर खाने के लिए भी लड़ेंगे।
आज भी देखिए तो जिनका कलेजा दूसरे जीवों की हत्या करके नहीं काँपता, अमूमन वही लोग धरती पर इंसानों की भी हत्याएं कर रहे हैं। चाहें तो इसपर स्टडी करके देख लें- शाकाहारी अधिक हिंसा कर रहे हैं या माँसाहारी? यानी जब हम खाने-पीने की आज़ादी के नाम पर मांसाहार का समर्थन कर रहे होते हैं, तो वस्तुतः हम हत्यारी प्रवृत्ति और हत्यारों का समर्थन कर रहे होते हैं।
जीव-हत्या के खिलाफ जंग को धार्मिक रंग नहीं दिया जाना चाहिए, न ही इसकी शुरुआत सिर्फ गाय से होनी चाहिए। इसमें गाय के अलावा भैंस और बकरी समेत उन तमाम दुधारू पशुओं को शामिल किया जाना चाहिए, जिनका दूध पीकर हमारे बच्चे बड़े होते हैं। इसलिए बीफ अगर गो-मांस नहीं हो, तो भी उसपर प्रतिबन्ध लगाया जाना चाहिए।
यह दुनिया सिर्फ रक्त-पिपासुओं की नहीं, हम अमन-पसंदों की भी है। सभ्य मनुष्य को धीरे-धीरे मानव-अधिकारों की लड़ाई से जीव-अधिकारों की लड़ाई की तरफ भी बढ़ना चाहिए।
याद रखें, शाकाहार और मांसाहार की बहस वस्तुतः सभ्य और असभ्य मनुष्यता की लड़ाई है। धर्म से इसका कोई संबंध नहीं। धर्म तो दुनिया भर में लोगों को लड़वा-मरवा रहे हैं और हम यहाँ सबकी रक्षा की बात कर रहे हैं।
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