(14 नवंबर 2015)
मेरा ख्याल है कि वेम्बले में मोदी ने उठ रहे सवालों के संतोषजनक जवाब दिए हैं। जो लोग TV स्क्रीन और अख़बारों की हेडलाइंस से भारत को समझने की कोशिश करेंगे, वे भारी गलती करेंगे। मीडिया की स्वतंत्रता बनी रहे, लेकिन उसे ज़िम्मेदार बनाने के लिए कुछ किये जाने की ज़रुरत है। खासकर दो सम्प्रदायों और जातियों से जुड़े मामलों की रिपोर्टिंग में।
बहरहाल, मोदी विदेशों में बोलते हैं तो विश्वनेता लगते हैं, लेकिन बिहार में रैली करते हैं, तो उन्हें संकीर्ण सोच वाले स्थानीय नेताओं के स्तर तक गिरना पड़ता है। बिहार चुनाव में वे भारी भूल कर चुके हैं। उम्मीद करनी चाहिए कि ऐसी गलती वे दोबारा नहीं करेंगे। पार्टी में सामूहिक नेतृत्व को बढ़ावा देंगे और अपना ध्यान पूरी तरह से सरकार के काम और उन वादों को पूरा करने में लगाएंगे, जो उन्होंने लोकसभा चुनाव से पहले किये और अब भी जगह-जगह करते हैं।
कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल मोदी-विरोध में कब राष्ट्र-विरोध की लाइन पार कर जाते हैं, इसका उन्हें एहसास तक नहीं है। सलमान खुर्शीद ने पाकिस्तान में जाकर भारत की पाक नीति की आलोचना की और नवाज़ शरीफ के लिए कसीदे पढ़े। कथित असहिष्णुता के मुद्दे का हौवा खड़ा करके भी विपक्ष ने देश को शर्मिंदा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
ये लोग पार्लियामेंट में भी सरकार को काम करने से रोकना चाहेंगे। इसलिए मोदी के सामने चुनौतियाँ बड़ी हैं। इन चुनौतियों से वह एक बड़ी लकीर खींचकर ही पार पा सकते हैं। और यह बड़ी लकीर वे "सबका साथ सबका विकास" के अपने नारे पर मज़बूती से अमल करते हुए ही खींच सकते हैं।
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