(4 नवंबर 2015)
दुनिया में देश की बदनामी हो रही है, लेकिन इसकी चिंता न "इन्हें" है, न "उन्हें" है। भारत दुनिया में आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ रहा है, लेकिन आतंकवादियों के प्रसंग इतने ग़ैर-ज़िम्मेदाराना तरीके से उछाले जा रहे हैं कि दुनिया को भी लग रहा होगा कि भारत ख़ुद आतंकवादियों का देश है, वह दूसरों के आतंकवाद के ख़िलाफ़ किस मुंह से बोल रहा है।
"ये" आरएसएस की तुलना आइसिस से करते हैं और "इनकी" तरफ़ से कोई नहीं कहता कि इतनी कड़वाहट और नकारात्मकता भी ठीक नहीं कि आलोचना करते-करते हम इतने बहक जाएं कि आइसिस और आरएसएस में कोई फ़र्क़ ही नज़र न आए। इसी तरह, "वे" शाहरुख खान की तुलना हाफ़िज सईद से करते हैं और "उनकी" तरफ़ से भी कोई नहीं कहता कि सियासत में इतने मत गिर जाओ कि तुम्हें अपने ही मुल्क का एक अच्छा-भला कलाकार आतंकवादी नज़र आने लगे।
हालात ऐसे हैं कि आज अगर अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा या यूएन सेक्रेटरी जनरल बान की मून भारत में धार्मिक असहिष्णुता पर एक बयान जारी कर दें, तो "ये" दुखी नहीं होंगे, बल्कि "इनकी" बांछें खिल जाएगी कि अब तो दुनिया भी कहने लगी है, अब तो बेइज़्ज़ती हुई। इसी तरह जब "वे" दूसरे मुल्कों में घूम-घूमकर भाषण देते हैं, तो वहां भी "वे" "इनकी" आलोचना वैसे ही करते हैं, जैसे भारत में चुनाव लड़ रहे हों।
एक तरफ "इनका" और "उनका" इस हद तक राजनीतिक पतन। दूसरी तरफ़ हमारा मीडिया, जो कारोबार चमकाने के चक्कर में चाहे-अनचाहे सनसनी, उन्माद, युद्ध, नफ़रत और दंगा बेचने को ही अपना धर्म समझ बैठा है। वह सबसे पहले उन्हीं लोगों के बयान दिखाता है, जिनके बयान दिखाने से नफ़रत की राजनीति को हवा मिलती है और फिर वही उसे मुद्दा भी बनाता है। मीडिया के मास्टरमाइंडों के दोनों हाथ में लड्डू हैं।
जैसे राजनीति में असली मुद्दे दम तोड़ चुके हैं, वैसे ही मीडिया में असली ख़बरों की हत्या की जा रही है। सियासी दल, मीडिया और बुद्धिजीवी- चूंकि ये सभी समाज में सकारात्मक भूमिका निभाने में विफल रहे हैं, इसलिए ये सभी मिलकर लोगों को फिजूल की चीज़ों में उलझा रहे हैं। बिहार चुनाव का फ़ायदा उठाने के चक्कर में पिछले एक महीने में इन सबने मिलकर माहौल सचमुच बिगाड़ दिया है, फिर भी अभी बहुत कुछ बिगड़ा नहीं है। अब तो रुक जाओ भैया।
जो हो रहा है, वह दुखद है, दुर्भाग्यपूर्ण है।
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